Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या 14-1
पढमो-संधि ओं नमो वीतरागायः ॥
जय मंगलगारउ, वीरु भडारउ .
भुवण सरणु केवलणयणु। लोगोत्तमु गोत्तमु, संजय सोत्तमु,
आराहमि तह जिण - वयणु ।
1.1
चउवीसमु - जिणु हय-पंचवाणु। तिहुवण-सिरि-सेहरु वढ्ढमाणु ॥ चउ गइ भव-गमणागमण-मुक्कु । कम्मट्ठ-णिविड-वंधणु-विमुक्कु ॥ णव-भाव जोणि-उप्पत्ति-हीणु। परमप्पय - सुद्ध - सहाव - लीणु ॥ परिसेसिय पंच पयार - भारु । पाविय संसार - समुद्द-पारु ॥ आवरणहीणु गय-वेयणीउ । आउसु विमुक्कु हय-मोहणीउ ॥ धुउ णाम - गोत्तु - विगयंतराउ । परिगलिय सुहासुह - पुण्णु - पाउ । अवहत्थिय पंच पयार दुक्खु । संपत्तु सहोत्थाणत - सुक्खु ।। चुअ जोणि लक्खु चुलसीदि जम्मु । संसार - असेसावइ अगम्मु ॥ णासिय ति लिंग पज्जत्तिच्छक्कु । खीणाडयाल सय पयडि-चुक्कु ॥ अणुखंद्ध - दव्व - संबंध चत्तु । जय केवल अप्प सरूव पत्तु ॥ फेडिय अट्ठारह दोस - भाउ । धोविय अणाइ दुव्वार राउ ॥ छह दव्व - सरूव फुरंतणाणु। सहजाणंदाचल सुह - णिहाणु ॥
पत्ता- सो वीर-जिणेसरु, भुवण-दिणेसरु, हियइ धरेविणु भव-हरणु ।
जहि वुद्धि-पयासें, कहमि समासे, णिय-संवोह पवित्थरणु
॥

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