Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 87
________________ 80 जैनविद्या 14-1 पढमो-संधि ओं नमो वीतरागायः ॥ जय मंगलगारउ, वीरु भडारउ . भुवण सरणु केवलणयणु। लोगोत्तमु गोत्तमु, संजय सोत्तमु, आराहमि तह जिण - वयणु । 1.1 चउवीसमु - जिणु हय-पंचवाणु। तिहुवण-सिरि-सेहरु वढ्ढमाणु ॥ चउ गइ भव-गमणागमण-मुक्कु । कम्मट्ठ-णिविड-वंधणु-विमुक्कु ॥ णव-भाव जोणि-उप्पत्ति-हीणु। परमप्पय - सुद्ध - सहाव - लीणु ॥ परिसेसिय पंच पयार - भारु । पाविय संसार - समुद्द-पारु ॥ आवरणहीणु गय-वेयणीउ । आउसु विमुक्कु हय-मोहणीउ ॥ धुउ णाम - गोत्तु - विगयंतराउ । परिगलिय सुहासुह - पुण्णु - पाउ । अवहत्थिय पंच पयार दुक्खु । संपत्तु सहोत्थाणत - सुक्खु ।। चुअ जोणि लक्खु चुलसीदि जम्मु । संसार - असेसावइ अगम्मु ॥ णासिय ति लिंग पज्जत्तिच्छक्कु । खीणाडयाल सय पयडि-चुक्कु ॥ अणुखंद्ध - दव्व - संबंध चत्तु । जय केवल अप्प सरूव पत्तु ॥ फेडिय अट्ठारह दोस - भाउ । धोविय अणाइ दुव्वार राउ ॥ छह दव्व - सरूव फुरंतणाणु। सहजाणंदाचल सुह - णिहाणु ॥ पत्ता- सो वीर-जिणेसरु, भुवण-दिणेसरु, हियइ धरेविणु भव-हरणु । जहि वुद्धि-पयासें, कहमि समासे, णिय-संवोह पवित्थरणु ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110