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जैनविद्या 14-15
नवम्बर 1993 - अप्रेल 1994
अप्प संवोह कव्व
अनु. - डॉ. कस्तूरचन्द सुमन
प्रस्तुत काव्य अपभ्रंश भाषा का सुन्दर आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। तीनों इस प्रकार कुल 58 कडवक तथा 202, 275 और 112
परिच्छेदों में क्रमश: 20, 27, 11 के क्रम से कुल 589 यमक हैं ।
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प्रथम संधि के प्रथम घत्ता में ग्रन्थ का नाम यद्यपि 'णिय संवोह' कहा गया है किन्तु तीनों सन्धियों की समाप्ति के पश्चात् 'अप्प संवोह कव्व' नाम भी प्रयुक्त हुआ है। प्रथम सन्धि के दूसरे कडवक में 'संवोहमि सह अप्पेण अप्पु ' पद से कवि के स्वयं के द्वारा स्वयं को सम्बोधित किये जाने के विचार ज्ञात होते हैं । कवि की धारणा है कि दूसरों को उपदेश करने से मनुष्य की अधोगति होती है । यही कारण है कि कवि स्वयं को ही सम्बोधित करता है और अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहता है । द्रष्टव्य हैं कवि की निम्न पंक्तियाँ
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उवएसु करेसमि जइ परहो । ता भावइ अह भावइ णरहो ।
तिणि कारण अप्पहो वज्जरमि । अप्पाणउ अप्पें उद्धरमि ॥ 13 ॥
प्रस्तुत काव्य में 'णिय' की अपेक्षा 'अप्प' शब्द के प्रयोग की बहुलता तथा सन्धियों के अन्त में स्पष्ट 'अप्प संवोह कव्व' नाम का प्रयोग होने से इस ग्रन्थ का यह नाम रखा गया है।
इस ग्रन्थ को डॉ. राजाराम जैन प्रभृति विद्वान् कवि रइधूकृत मानते हैं । इस ग्रन्थ की जो प्राचीनतम पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है उसके अन्त में निम्न प्रशस्ति मिलती है -
संवत् 1534 वर्षे श्रावण सुदि पंचमी भौमवासरे । श्रीमूलसंघे कुंदकुंदाचार्याम्नाये | भट्टारक श्री सिघकीर्त्ति । तस्य सिष्य श्रीप्रचंडकीर्ति देवान् । तस्य सिष्य मंडलाचार्य श्री सिंहणंदि इदं आत्म संबोध ग्रन्थ लिष्यतं कर्म्मक्षय निव्यत्य ( सुभमस्तु ) ।
प्रस्तुत प्रशस्ति से इस ग्रंथ के रचयिता मंडलाचार्य श्री सिंहनंदि ज्ञात होते हैं। संभवत: इन्होंने ही पंच नमस्कार मंत्र माहात्म्य ग्रंथ लिखा था । संवत् 1534 ग्रन्थ का रचना काल कहा जा सकता है । यह पाण्डुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में ग्रन्थ प्रविष्टि संख्या 61 से संगृहीत है। इसमें पाँचों अणुव्रतों को गहराई से समझाया गया है।