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जैनविद्या 14-15 क्षय में हेतु है और यह नियम है कि जो कर्म-क्षय का हेतु है वह कर्म-बंध का कारण नहीं हो सकता। अतः पुण्यास्रव कर्मबंध का कारण नहीं हो सकता। __ वर्तमान में जैन समाज में सर्व-साधारण में यह धारणा प्रचलित है कि जहां आस्रव है वहां कर्म का बंध है। परन्तु उनकी यह धारणा पुण्यात्रव तत्व, आस्रव तत्व व बंध तत्व का रहस्य न समझने के कारण से है। क्योंकि यदि आस्रव बंध का कारण होता तो आस्रवतत्व बंधतत्व का ही एक रूप या भेद होता, ये दोनों तत्व अलग-अलग नहीं कहे होते। परन्तु कर्मबंध का कारण कषाय और योग को कहा है और योग में भी शुभयोग को कर्मबंध का कारण नहीं कहा है - प्रत्युत शुभयोग को कर्म-क्षय का कारण कहा है । क्योंकि शुभयोग कषाय में कमी का द्योतक है जिससे कर्मों की स्थिति के क्षयरूप कर्मबंध का क्षय नियम से होता है। यह नियम है कि जितना शुभ या शुद्धभाव बढ़ता जावेगा अर्थात् सद् प्रवृत्ति दया, अनुकंपा व त्याग, तप, संयम बढ़ता जायेगा उतना पुण्य का आस्रव बढ़ता जावेगा अर्थात् पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग व प्रदेश बढ़ते जावेंगे और इस पुण्य के अनुभाग के बढ़ने से पाप-प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग घटता (क्षय होता) जावेगा तथा पुण्य-प्रकृतियों की स्थिति भी घटती जावेगी। यह स्मरण रहे कि मिथ्यात्व अवस्था में सद्प्रवृत्तियों से जितना पुण्य-प्रकृतियों का आस्रव होता है अर्थात् पुण्यप्रकृतियों के अनुभाग का उपार्जन होता है उससे असंख्य-अनन्त गुणा पुण्य का अर्जन पुण्यात्रव, संयम-त्याग-तप से होता है।
यहां यह तथ्य स्मरण रखने का है कि पुण्य-पाप का आधार कर्मों का अनुभाग है स्थिति नहीं। कारण कि कर्म सिद्धान्तानुसार आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की समस्त पाप तथा पुण्य प्रकृतियों का स्थिति बंध कषाय की वृद्धि (संक्लेश) से अधिक तथा कषाय की कमी 'विशुद्धि' से कम होता है। अतः स्थिति बंध सातों कर्मों की समस्त प्रकृतियों का अशुभ ही है शुभ नहीं। तत्त्वार्थसूत्र (अध्याय 6, सूत्र 2-3 की) राजवार्तिक आदि टीकाओं में स्थिति बंध को स्पष्ट शब्दों में अशुभ कहा है। शुभ ही पुण्य होता है। अतः सर्वत्र पुण्य शब्द से आशय पुण्य के अनुभाग से ही है स्थिति से नहीं ।
जयधवला की उपर्युक्त गाथा "पुण्णस्सासवभूदा ... वियाणदि" अर्थ में "सुद्धओ व उवजोओ" का अर्थ शुद्ध योग अनुवादक व सम्पादक ने अपनी इच्छा से जोड़ दिया है जबकि शुद्ध योग जैसा कुछ होता ही नहीं है, शुभयोग होता है और यह शुभयोग भावों की विशुद्धि से होता है अर्थात् शुद्धोपयोग से होता है। इससे स्पष्ट है कि शुद्धोपयोग से पुण्यात्रव होता है। अतः शुभयोग से ही पुण्यात्रव मानना और शुद्धोपयोग को पुण्य का आस्रव का हेतुक मानना बहुत बड़ी भ्रान्ति है । मूल गाथा में उत्तरार्द्ध में अनुकंपा और शुद्धोपयोग के विपरीत को अर्थात् अशुद्धोपयोग को पाप के आस्रव का हेतु कहा है। यदि शुभ-योग को अशुद्धोपयोग का भेद माना जाय तो उपर्युक्त गाथा के अनुसार शुभयोग को पाप के आस्रव का हेतु कहा जायेगा - पुण्यात्रव का नहीं। जबकि शुभयोग से पुण्यास्रव होता है इससे स्पष्ट है कि शुभयोग शुद्धोपयोग रूप भाव का ही क्रियात्मक रूप है। अतः शुभयोग को अशुद्धोपयोग, अशुद्धभाव-विभाव कहना आगमविरुद्ध है। विभाव केवल पाप का ही द्योतक है, पुण्य का नहीं। क्योंकि -
पुण्य का उपार्जन शुद्धोपयोग से होता है। शुद्धोपयोग उसे ही कहा जाता है जिससे आत्मा पवित्र हो और जिससे आत्मा पवित्र हो वही पुण्य है। पुण्य की यह परिभाषा राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि आदि प्राचीन टीकाओं में आचार्यों को मान्य रही है।