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अर्थ -
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प्रश्न - पूर्व संचित कर्म का क्षय किस कारण से होता है ?
उत्तर - कर्म की स्थिति का क्षय हो जाने से कर्म का क्षय हो जाता है।
प्रश्न- स्थिति का क्षय किस कारण से होता है ?
जैनविद्या 14-15
उत्तर कषाय के क्षय से स्थिति का क्षय होता है । अर्थात् जितने अंशों में कषाय क्षय होता है, कषाय में कमी आती है उतने अंशों में नवीन कर्मों में स्थिति नहीं पड़ती है और सत्ता में स्थित कर्मों की पुरातन स्थिति का क्षय हो जाता है । "
उपर्युक्त नियम आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की सब पाप तथा पुण्य प्रकृतियों पर समानरूप से लागू होता है। कर्मग्रंथ, कम्मपहडि, पंच संग्रह, गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि समस्त कर्म-सिद्धान्त वाङ्मय इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन व पुष्टि करते हैं। तात्पर्य यह है कि शुभभाव से कर्मक्षय होते हैं यह तथ्य पूर्णरूप से आगम एवं कर्म सिद्धान्त - सम्मत है। इसमें मतभेद को कोई स्थान नहीं है। अतः यह मानना कि 'शुभभाव औदयिक भाव हैं और कर्मबंध के कारण हैं' आगम और कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध है ।
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शुद्धोपयोग से पुण्याश्रव होता है
पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्धओ व उपजोओ। विपरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहिं ॥ 52 ॥
जयधवला, पुस्तक 1
अर्थात् अनुकंपा और शुद्ध उपयोग ये पुण्यास्रव स्वरूप हैं या पुण्यास्रव के कारण हैं तथा इनसे विपरीत अर्थात् अदया और अशुद्ध उपयोग ये पापास्रव के कारण हैं। इस प्रकार आ के हेतु समझना चाहिये ।
उपर्युक्त गाथा में श्री वीरसेनाचार्य ने अनुकंपा और शुद्ध उपयोग इन दोनों को पुण्यासव का कारण बताया है इससे प्रथम तथ्य तो यह फलित होता है कि शुद्ध उपयोग अर्थात् शुद्ध भाव भी आस्रव होता है और द्वितीय तथ्य यह फलित होता है कि अनुकंपा और शुद्ध उपयोग (शुद्ध भाव) से दोनों सहचर व सहयोगी हैं अर्थात् जो कार्य शुद्ध उपयोग/शुद्धभाव से होता है वही कार्य अनुकंपा से भी होता है । तृतीय तथ्य यह सामने आता है कि पुण्यास्रव का हेतु अशुद्धभाव या विभाव नहीं है प्रत्युत शुद्धभाव ही है। अशुद्ध भाव व विभाव से पाप का ही आस्रव होता है पुण्य का नहीं ।
उपर्युक्त तीनों तथ्य श्रमण संस्कृति व कर्म - सिद्धान्त के प्राण हैं। जो इन तथ्यों को स्वीकार नहीं करता वह श्रमण संस्कृति व जैन कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है । आगे इन्हीं दो तथ्यों पर विचार किया जा रहा है।
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श्री वीरसेनाचार्य ने जयधवला की इसी प्रथम पुस्तक में पृष्ठ 5 पर शुभ व शुद्ध भाव को कर्म-क्षय का कारण बताया है और यहां इसी पुस्तक के पृष्ठ 96 पर इन्हें पुण्यास कार बताया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जो पुण्यास्रव के कारण 'ही कर्म-क्षय के भी कारण हैं अर्थात् पुण्यास्रव व कर्म-क्षय के कारण एक ही हैं। इससे यह भी फलित होता है कि पुण्यास्रव की वृद्धि जितनी अधिक होगी उतना ही कर्म-क्षय अधिक होगा या यों कहें कि पुण्यास्रव कर्म