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जैनविद्या 14-15
से नहीं। इसलिए जबकि औदयिक भाव कर्मबंध के कारण हैं तो शुभ परिणामों से कर्मबंध ही होना चाहिये, क्षय नहीं।" _ 'शुभ भाव' कषाय के उदय से होते हैं। सम्पादक महोदय की उपर्युक्त यह मान्यता केवल एक संपादक महोदय की ही हो सो नहीं है। यह मान्यता कुछ शताब्दियों से जैनधर्मानुयायियों के अनेक संप्रदायों में घर कर गई है। कारण कि शुभभावों की उत्पत्ति का कारण यदि कषाय के उदय को न माना जाय तो 'शुभभाव से कर्मबंध होता है' यह नहीं माना जा सकता, जो उनको इष्ट नहीं है।
यहाँ प्रथम यह विचार करना है कि शुभभाव की उत्पत्ति का कारण कषाय का उदय है या नहीं। इस संबंध में निम्नांकित तथ्य चिंतनीय है -
कषाय अशुभभाव है। अशुभभावों के उदय से शुभ परिणामों की उत्पत्ति मानना मूलतः ही भूल है। यह भूल ऐसी ही है जैसे कोई कटु नीम का बीज (निम्बोली) बोये और उसके फल के रूप में मधुर आमों की उपलब्धि होना माने। परन्तु नियम यह है कि जैसा बीज होता है वैसा ही फल होता है, अतः कषायरूप अशुभ परिणामों के उदय के फलस्वरूप शुभ परिणामों की उत्पत्ति मानना भूल है। ___ यदि शुभभावों की उत्पत्ति का कारण कषाय के उदय को माना जाय तो अशुभभावों की उत्पत्ति का कारण किसे माना जाय ? फिर तो अशुभभावों की उत्पत्ति का कारण शुभभावों की मानना होगा, जो युक्तियुक्त नहीं है। यदि शुभभाव और अशुभभाव इन दोनों भावों की उत्पत्ति का कारण कषाय के उदय को माना जाय तो एक ही कारण से दो विरोधी कार्यों की उत्पत्ति या दो विरोधी फलों की प्राप्ति माननी पड़ेगी जो न उचित है और न उपयुक्त ही तथा युक्तियुक्त भी नहीं है।
यदि केवल शुद्ध-भाव को ही कर्मक्षय का कारण माना जाय और शुभभावों से कर्म-क्षय न माना जाय तो वीतराग के अतिरिक्त अन्य कोई कर्मक्षय कर ही नहीं सकता। कारण कि वीतराग को छोड़कर अन्य किसी के शुद्धभाव संभव ही नहीं है क्योंकि वीतराग के अतिरिक्त शेष सब प्राणियों के नियम से कषाय का उदय रहता ही है और जहां तक कषाय का उदय है वहां तक शुद्ध-भाव नहीं हो सकते और शुद्धभाव के अभाव में कर्मों का क्षय नहीं हो सकेगा। इस प्रकार दशवें गुणस्थान तक कर्मक्षय का कोई उपाय ही शेष न रहेगा। कर्मक्षय के अभाव में तप-संयम, संवर; निर्जरा के अभाव का प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा। जिससे साधना के मार्ग का ही लोप हो जायेगा जो आगम-विरुद्ध है। इस आपत्ति का निवारण शुभभाव को कर्मक्षय का कारण मानने से ही संभव है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई समाधान नहीं जान पड़ता है। अतः शुभभाव से कर्मबंध होता है यह मान्यता युक्तिविरुद्ध है।
शुभ व शुद्ध-भाव से कषाय में मंदता आती है। कषाय में जितनी मंदता आती है उतनी ही सत्ता में स्थित कर्म प्रकृतियों की स्थिति का क्षय होता है। स्थिति का क्षय ही कर्म का क्षय है, जैसा कि श्री वीरसेनाचार्य ने कषायपाहुड (गाथा 1 की जयधवला टीका, पुस्तक 1, पृष्ठ 57) में कहा है - "पुव्व संचियस्स कम्मस्स कुदोखओ? द्विदिक्खयादो।द्विदिखंडओकत्तो कसायक्खयादो।