Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 81
________________ 74 जैनविद्या 14-15 केवलज्ञान संभव ही नहीं है। अतः केवलज्ञान न होने का कारण पुण्य के अनुभाग का उत्कृष्ट नहीं होना है न कि पुण्य का अर्जन। जब पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग के बिना कोई वीतराग ही नहीं हो सकता तो मुक्ति कैसे? इससे स्पष्ट है कि मुक्ति न मिलने व केवलज्ञान न होने का कारण पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग में कमी रहना है न कि पुण्य की उपलब्धि। पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग में कमी होने का कारण तत्सम्बन्धी कषाय की विद्यमानता व उदय है। अत: वीतरागता, केवलज्ञान व मुक्ति-प्राप्ति का बाधक कारण कषायरूप पाप का पूर्ण क्षय न होना है, पुण्य नहीं। अतः पुण्य को मुक्ति में बाधक मानना जैनागम व जैनकर्म सिद्धान्त के विपरीत है। शुभयोग (सद्प्रवृत्ति) से कर्म क्षय होते हैं जैनागमों में विषय-कषाय, हिंसा, झूठ आदि असद् प्रवृत्तियों को सावध योग, अशुभ योग व पाप कहा गया है तथा दया, दान, करुणा, वात्सल्य, वैयावृत्य आदि सद् प्रवृत्तियों को शुभयोग व पुण्य कहा गया है। साथ ही शुभयोग को संवर भी कहा है। शुभयोग को संवर कहने का अर्थ यह है कि शुभयोग से कर्म-बंध नहीं होता है तथा यह भी कहा गया है कि शुभयोग से कर्म क्षय होते हैं अर्थात् कर्मों की निर्जरा भी होती है। 'शुभयोग' संवर और निर्जरा रूप है अर्थात् दया, दान, अनुकंपा, करुणा, वात्सल्य, सेवा, परोपकार, मैत्री आदि सद् प्रवृत्तियों से कर्मबंध नहीं होता है प्रत्युत कर्मों का क्षय होता है। 'शुभयोग से कर्म-बंध नहीं होता है वरन् कर्म-क्षय होता है।' यह मान्यता जैनधर्म की मौलिक मान्यता है और प्राचीन काल से परम्परा के रूप में अविच्छिन्न धारा से चली आ रही है। इसके अनेक प्रमाण ख्यातिप्राप्त दिगम्बर आचार्य श्री वीरसेन स्वामी रचित प्रसिद्ध 'धवला टीका' एवं 'जयधवला टीका' में देखे जा सकते हैं। उन्हीं में से कषाय पाहुड की जयधवला टीका से एक प्रमाण यहां उद्धृत किया जा रहा है - सुह सुद्ध परिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो उत्तं च - ओदइयाबंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा । भावो दु परिणामिओ करणोभय वज्जिओ होइ ॥1॥ जयधवला, पुस्तक 1 अर्थात् शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। कहा भी है - ___ औदयिक भावों से कर्म-बंध होता है। औपशमिक, क्षायिक और मिश्र (क्षायोपशमिक) भावों से मोक्ष होता है तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष इन दोनों के कारण नहीं है। उपर्युक्त उद्धरण में टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य ने जोर देकर स्पष्ट शब्दों में कहा है कि क्षायोपशमिक भाव (शुभयोग) से कर्म क्षय होते हैं, कर्म-बंध नहीं होते हैं। कर्मबंध का कारण तो एकमात्र उदयभाव ही है। __उपर्युक्त मान्यता पर इस ग्रंथ के मान्यवर संपादक महोदय ने 'विशेषार्थ' के रूप में अपनी टिप्पणी देते हुए लिखा है - "शुभ परिणाम कषाय आदि के उदय से ही होते हैं क्षयोपशम आदि

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