________________
12
जैनविद्या 14-15
दर्शनावरणीय कर्म और स्व-संवेदन __दर्शनावरणीय कर्म में प्रयुक्त दर्शन शब्द को ही लें - 'दर्शन' शब्द का प्रायः सभी आचार्यों ने 'सामान्य ज्ञान' अर्थ किया है परन्तु दर्शनावरणीय कर्म में आए दर्शन शब्द का अर्थ स्वसंवेदन होता है और इस अर्थ पर जितना बल धवलादि टीका में दिया है वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। संवेदनशीलता ही चेतना का मूल गुण है। कारण कि जिसमें संवेदनशीलता नहीं है उसमें चेतना गुण भी नहीं है। इस प्रकार दर्शन और ज्ञान का अभाव होने पर चेतना के ही अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। इसी प्रकार श्री वीरसेनाचार्य ने दर्शन को अंतर्मुख चैतन्य एवं ज्ञान को बहिर्मुख चित्त-प्रकाशक कहा है। दर्शन और ज्ञान का ऐसा स्पष्ट भेद अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है।
जैन संप्रदायों में सामान्य ग्रहण' को दर्शन कहा है परन्तु वीरसेनाचार्य ने 'सामान्य' शब्द का अर्थ 'आत्मा व जीव' किया है (धवला, पुस्तक 1, पृ. 148)।
श्री वीरसेनाचार्य द्वारा प्रस्तुत विशेष ज्ञातव्य परिभाषाएं - ज्ञान-दर्शन
बाह्यार्थ परिच्छेदिका जीव शक्तिमा॑नम् । (धवला टीका, 5.5.19, पुस्तक 13, पृष्ठ 206) अर्थ – बाह्य अर्थ का परिच्छेद करनेवाली जीव की शक्ति ज्ञान है।
"सायारोणाणं ..... कमा-कत्तारभावो आगारो" अर्थात् साकार उपयोग का नाम ज्ञान है। ..... कर्म कर्तृत्वभाव का नाम ज्ञान है। बहिर्मुखचित्त प्रकाश ज्ञान है । ..... ज्ञान बहिरंग अर्थ को विषय करता है। अनाकार उपयोग का नाम दर्शन है। दर्शन अंतरंग अर्थ को विषय करता है।
अंतर्मुख चैतन्य दर्शन है। (धवला टीका, 1.1.4, पुस्तक 1, पृष्ठ 1461) वेदनीय
जीव के सुख और दुःख का उत्पादक कर्म वेदनीय है। प्रश्न - प्रकृत में सुख शब्द का क्या अर्थ लिया गया है? उत्तर - प्रकृत में दुःख के उपशम रूप सुख को लिया गया है।
नोट - यहां विषय सुख को सातावेदनीय में ग्रहण नहीं किया है। करुणा : स्वभाव है, विभाव नहीं
वर्तमान में बहुत से विद्वान् करुणा, दया आदि भावों को जीव का विभाव मानते हैं परन्तु श्री वीरसेनाचार्य ने करुणा को जीव का स्वभाव कहा है यथा - "करुणाएं कारणं कम्मं करुणे त्ति कि ण वुत्तं ? ण, करुणाएं जीव-सहावस्स कम्मजणिदत्त विरोहादो। अकरुणाएं कारणं कम्मं वत्तव्वं ? ण, एस दोसो, संजमधादि कम्माणं फलाभावेण तिस्से अब्भुवगमादो।" (धवला, पुस्तक 13, पृष्ठ 361; षट्खंडागम खंड 5, अनुयोग 5, सूत्र 96)। __ अर्थ - प्रश्न - करुणा का कारणभूत कर्म 'करुणा कर्म' है, यह क्यों नहीं कहा?