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जैनविद्या 14-15 ___समाधान - नहीं, क्योंकि जिनवचन के असत्य होने में विरोध आता है। वह विरोध भी वहाँ उसके कारणों के नहीं होने से जाना जाता है। दूसरे, केवलज्ञान के द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थों के ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते हैं। इसीलिये यदि छद्मस्थों को कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते हैं तो इससे जिनवचन को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता।तथा गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात भी नहीं है। क्योंकि, जिनका दीक्षायोग्य साधु-आचार है, साधु-आचारवालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इस प्रकार के ज्ञान और वचनव्यवहार के निमित्त हैं उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहा जाता है। उनमें उत्पत्ति का कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है। यहाँ पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं हैं, क्योंकि उनके होने में विरोध है। __ उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार गोत्रकर्म की दो ही प्रकृत्तियां होती हैं। वस्तुतः गोत्रकर्म का सम्बन्ध जातिगत न होकर जीव के ऊंच-नीच भावों से है जैसा कि श्री वीरसेनाचार्य ने कहा है -
उच्चुच्च उच्च वह उच्चणीच नीचुच्च णीच णीचं च । जस्सोदएण भावो णीचुच्चविवच्चिदो लम्म ॥10॥
धवला, पुस्तक 7 . जिस गोत्रकर्म के उदय से जीव उच्चोच्च, उच्च, उच्चनीच, नीचोच्च, नीच और नीचनीच भाव को प्राप्त होता है उसी नीच गोत्र के क्षय से वह जीव ऊँच व नीच भावों से मुक्त होता है।
इससे स्पष्ट है कि गोत्रकर्म का संबंध भावों से है क्योंकि यह जीव शरीर से सम्बन्धित विकापी कर्म है, पुद्गल विपाकी नहीं है। यदि पुद्गल-विपाकी कर्म होता तो वह शरीर से संबंधित होता।
अन्तराय कर्म का क्षय और सिद्धावस्था ___ वर्तमान काल में बहुत से विद्वान सिद्ध भगवान में दान, लाभ आदि लब्धियां नहीं मानते हैं परन्तु श्री वीरसेनाचार्य ने धवला पुस्तक 7 में सिद्धों में पांच लब्धियाँ मानी हैं -
विरियोवभागे-भोगे दाणे लाभे जदुयदो विग्धं ।
पंच विह लद्धि जुत्तो तक्कम्मखया हवे सिद्धो ॥11॥ __ जिस अंतराय कर्म के उदय से जीव के वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभ में विघ्न उत्पन्न होता है उसी कर्म के क्षय से सिद्ध पँचलब्धि (दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) से युक्त होते हैं।
नोट - अंतराय-कर्म के क्षय से तेरहवें गुणस्थान में दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यजीव के ये पाँचों क्षायिक गुण प्रकट होते हैं। ये गुण जीव के स्वभाव हैं अतः निज गुण हैं किसी बाहरी पदार्थ पर निर्भर नहीं हैं और न बाहरी जगत से संबंधित हैं। अतः सिद्ध होने पर ये गुण नष्ट नहीं हो सकते ? सिद्धों में इन गुणों को न मानना क्षायिक भाव, गुण व स्वभाव का भी नष्ट होना मानना है, जो उचित नहीं है।