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जैनविद्या 14-15
गोम्मटसार-जीवकाण्ड में - जिसमें अथवा जिसके द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाता है अर्थात् खोजे जाते हैं उसे 'मार्गणास्थान' कहा गया है। अतः यहाँ प्रश्न उठता है कि जिसमें अथवा जिसके द्वारा 'गुणस्थान' खोजे जाते हैं वह 'मार्गणास्थान' है या जिसमें अथवा जिसके द्वारा 'जीव' खोजे जाते हैं वह 'मार्गणास्थान' है ? यद्यपि गोम्मटसार-जीवकाण्ड में जीवों के अन्वेषण-स्थान या हेतु को 'मार्गणास्थान' कहा गया है और यह सम्भव हो सकता है कि यह अर्थ अधिक तर्कसंगत हो, किन्तु धवला में की गई मार्गणास्थान की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि धवला में मार्गणास्थान से तात्पर्य गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान या हेतु से ही है। यहाँ हम मार्गणास्थान के अर्थ के विवाद में नहीं पड़कर धवला में वर्णित मार्गणास्थान के अर्थ को ही ले रहे हैं। अत: कहा जा सकता है कि जीव की वे पर्याय विशेष अथवा अवस्था विशेष जिनमें अथवा जिनके द्वारा आत्मा के गुणों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं या विकास के विभिन्न सोपानों की गवेषणा की जाती है 'मार्गणास्थान' कहलाते हैं। वे मार्गणास्थान चौदह हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार इसका तात्पर्य यह है कि गति में, इन्द्रिय में, काय में, योग में, वेद में, कषाय में, ज्ञान में, संयम में, दर्शन में, लेश्या में, भव्यत्व में, सम्यक्त्व में, संज्ञी में और आहार में गुणस्थानों का अर्थात् आत्मा के गुणों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अन्वेषण किया जाता है धवलाकार के अनुसार मार्गणास्थान चौदह ही हैं, वे न तो न्यून हैं और न अधिक __ अब प्रश्न उठता है कि गति आदि मार्गणास्थानों का स्वरूप क्या है ? गति और गतिमार्गण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जीव की वह अवस्था विशेष जो 'गति नामकर्म' के उदय से उत्पन्न होती है जिससे जीव का एक भव से दूसरे भव में परिणमन होत है, 'गति' कहलाती है। अन्य शब्दों में - जीव का देव, मनुष्य आदि पर्यायों में रूपान्तरित हे जाना 'गति' कहलाता है और गति में गुणस्थानों का अन्वेषण करना 'गतिमार्गणा'। षट्खण्डागम' में गति के पाँच भेद - नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति बतलाये गये हैं, किन्तु धवलाकार ने गति में गुणस्थानों के अन्वेषण की चर्चा करते हुए सिद्धगति' को नहीं लिया है; क्योंकि सम्भवतः सिद्धगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न नहीं होती है और न ही वह गुणस्थानों का अन्वेषण स्थान अथवा हेतु है अर्थात् सिद्धगति कर्म और गुणस्थान से परे की अवस्था है। अतः गुणस्थानों के अन्वेषण के संदर्भ में गति के चार ही मुख्य भेद हैं । वे भेद हैं - नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। ___ नरक नामकर्म से उत्पन्न होनेवाले जीवों को 'नारक' कहते हैं और उनकी गति को 'नरकगति'। प्रश्न उठता है कि नरकगति कौन-से गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है अर्थात् नरकगति में कौन-से गुणस्थान पाये जाते हैं ? प्रत्युत्तर में कहा गया है कि नरकगति में प्रथम चार गुणस्थान (1-4) अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पाये जाते हैं।
तिर्यंच नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए जीवों की गति को 'तिर्यंचगति' कहते हैं । तिर्यंचगति प्रथम पाँच गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है अर्थात् तिर्यंचगति में प्रथम पाँच गुणस्थान (1-5) -