Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 64
________________ जैनविद्या 14-15 'पाँच इन्द्रिय' जीव कहते हैं। जिसके द्वारा शब्द का ज्ञान हो उसे 'श्रोत्र इन्द्रिय' कहते हैं। श्रोत्र इन्द्रिय केवल पाँच इन्द्रिय जीवों के ही होती है, अन्य जीवों के नहीं होती। मनुष्य, देव, नारकी, गाय, भैंस, कबूतर, मयूर आदि जीव पाँच इन्द्रिय जीव हैं। पाँच इन्द्रिय जीवों में अथवा श्रोत्र इन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली तक के गुणस्थान होते हैं अर्थात् पाँच इन्द्रिय जीव या श्रोत्र इन्द्रिय मार्गणास्थान सभी गुणस्थानों का अन्वेषण स्थान है। ध्यान देने की बात है कि जो पाँच इन्द्रिय जीव मनरहित हैं उनके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और जो मनसहित अर्थात् मन युक्त हैं उनके सभी चौदह गुणस्थान होते हैं। __ऊपर यह स्पष्ट किया है कि स्पर्शन इन्द्रिय सम्पूर्ण काय या शरीर में व्याप्त रहती है और अन्य इन्द्रियाँ विशिष्ट अंगों में। इसका तात्पर्य यह है कि काय का ऐसा कोई भाग अथवा अंग नहीं है जो इन्द्रिय-रहित है अर्थात् सम्पूर्ण काय इन्द्रियों से व्याप्त है। यहाँ प्रश्न उठता है कि काय और इन्द्रियाँ दो भिन्न प्रकार की सत्ताएँ हैं या एक ही प्रकार की सत्ता है ? क्या इन्द्रियों का समूह ही काय है या काय इन्द्रियों से भिन्न है ? यदि इन्द्रियों का समूह ही काय है तब उन्हें दो कहने का क्या अर्थ है और यदि दोनों भिन्न हैं तब काय और इन्द्रिय में क्या भेद है ? आदि। इन प्रश्नों के समाधान के लिए काय की अवधारणा का स्पष्टीकरण आवश्यक है। ___ धवला में 'काय' के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी आदि कर्मों के उदय से जो संचित किया जाता है उसे 'काय' कहते हैं P° तात्पर्य यह है कि जीव के भौतिक देह के निमित्त कर्मों के उदय से कुछ विशिष्ट पुद्गल कणों का विशिष्ट प्रकार से आत्मा के साथ संयोग या संचय होता है उन विशिष्ट प्रकार से संचित विशिष्ट पुद्गल कणों के पिण्ड को 'काय' कहते हैं और काय में गुणस्थानों के अन्वेषण को 'कायमार्गणा'। काय का एक अन्य लक्षण किया गया है कि 'योग' से संचित हुए पुद्गल-पिण्डों को 'काय' कहते हैं । यहाँ प्रश्न उठता है कि 'योग' से क्या तात्पर्य है ? इस प्रश्न पर आगे विचार करेंगे, अतः इसे यहाँ छोड़ा जा रहा है। काय के छः प्रकार हैं - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय2 पृथ्वीकायिक जीवों के काय को 'पृथ्वीकाय' कहते हैं, अथवा पृथ्वी नामकर्म के उदय से संचित किया गया काय 'पृथ्वीकाय' कहलाता है। पृथ्वीकाय के अनेक भेद हैं, जैसे - शर्करा, बालुका, पत्थर, नमक, लोहा, ताँबा, सोना, मूंगा, स्फटिकमणि, नीलमणि, पुखराज आदि। जल नामकर्म के उदय से संचित किया गया काय 'जलकाय' कहलाता है। जलकाय के अनेक प्रकार हैं, जैसे - ओस, बर्फ, कुहरा, झरना, समुद्र, मेघ का जल आदि। अग्नि नामकर्म के उदय से संचित काय को 'अग्निकाय' कहते हैं अथवा अग्निकायिक जीवों के काय को 'अग्निकाय' कहते हैं। अंगार, ज्वाला, अग्निकिरण, बिजली आदि अग्निकाय के अनेक प्रकार हैं। जिस काय की उत्पत्ति में या संचय में वायु नामकर्म का उदय निमित्त हो उसे 'वायुकाय' कहते हैं । उद्भ्राम, चक्रवात, उत्कलि, गुंजायमान, घनवात, तनुवात आदि काय वायुकाय के भेद हैं। वनस्पति कर्म के उदय से संचित काय को अर्थात् जिस काय के संचय में वनस्पति कर्म का उदय निमित्त हो उसे 'वनस्पतिकाय' कहते हैं। मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, कन्दबीज आदि वनस्पतिकाय के भेद हैं।

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