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जैनविद्या 14-15
त्याग 'परिहारशुद्धिसंयम' कहलाता है। सूक्ष्मकषाययुक्त संयम को 'सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयम' कहते हैं और सभी कषायों के अभावरूप संयम को 'यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम'। ___ ये सभी संयम गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान हैं। इनमें से सामायिक शुद्धिसंयम और छेदोपस्थापनाशुद्धि संयम प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान हैं। परिहारशुद्धि संयम प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसयंत इन दो गुणस्थानों का, सूक्ष्मसांपरायशुद्धि संयम केवल एक गुणस्थान सूक्ष्मसांपरायशुद्धि गुणस्थान का और यथाख्यातविहारशुद्धि संयम उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली - इन चार गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है।
ज्ञान, शक्ति आदि की अनन्तता को प्राप्त करने के लिए संयम के साथ 'सम्यक्त्व' का होना आवश्यक है। यदि संयम है और सम्यक्त्व नहीं है तब ज्ञान, शक्ति आदि की अनन्तता को प्राप्त करना असम्भव है। प्रश्न उठता है कि 'सम्यक्त्व' से क्या तात्पर्य है ? प्रत्युत्तर में कहा गया है कि तत्त्वार्थ के श्रद्धान को 'सम्यक्त्व' कहते हैं तथा आप्त, आगम और पदार्थ को 'तत्त्वार्थ' सम्यक्त्व के पाँच प्रकार हैं - क्षायिकसम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व उपशमसम्यक्त्व, सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यासम्यक्त्व। समस्त दर्शन मोहनीय कर्मों के क्षय हो जाने पर होनेवाले श्रद्धान को 'क्षायिकसम्यक्त्व' कहते हैं, उनके उदय से होनेवाले चल, मलिन एवं अगाढ़रूप श्रद्धान को 'वेदकसम्यक्त्व और उसके उपशम से होनेवाले श्रद्धान को 'उपशमसम्यक्त्व' कहते हैं। जो सम्यक्त्व गिरकर मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है उसे 'सासादनसम्यक्त्व' कहते हैं और तत्त्वार्थ में श्रद्धान तथा अश्रद्धान दोनों-रूप सम्यक्त्व को 'सम्यग्मिथ्यासम्यक्त्व' कहते हैं। इन सम्यक्त्वों में गुणस्थानों की गवेषणा को 'सम्यक्त्व मार्गणास्थान' कहते हैं। इनमें से क्षायिकसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से अयोगिकेवली तक के गुणस्थानों का अन्वेषण किया जाता है अर्थात् क्षायिकसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से अयोगिकेवली तक के गुणस्थान होते हैं । वेदकसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत तक के गुणस्थान; उपशमसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ तक के गुणस्थान, सासादनसम्यक्त्व में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और सम्यग्मिथ्या सम्यक्त्व में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है।
ध्यान देने की बात है कि संयम और सम्यक्त्व के द्वारा सभी जीव अनन्तचतुष्ट्य को प्राप्त नहीं कर सकते, कुछ जीव ही ज्ञान आदि की अनन्तता को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् जो भव्य जीव हैं वे ही संयम और सम्यक्त्व के द्वारा ज्ञान, शक्ति आदि की अनन्तता को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु जो अभव्य जीव हैं वे ज्ञान आदि की अनन्तता को प्राप्त नहीं कर सकते; क्योंकि वे संयम और सम्यक्त्व को धारण करने में असमर्थ हैं। यहाँ 'भव्य' और 'अभव्य' से तात्पर्य है जो जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के योग्य हैं अर्थात् जो समस्त कर्मों से रहित अवस्था को प्राप्त करने के योग्य हैं उन्हें 'भव्य' कहते हैं और जो अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं उन्हें 'अभव्य'3 भव्य और अभव्य में गुणस्थानों के अन्वेषण को 'भव्यमार्गणास्थान' कहते हैं। भव्य जीव मिथ्यादृष्टि से अयोगिकेवली तक के गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है और अभव्य जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अन्वेषण-स्थान ।।