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जैनविद्या 14-15
नवम्बर 1993-अप्रेल 1994
षट्खण्डागम और धवला में मार्गणास्थान की अवधारणा
- श्री राजवीरसिंह शेखावत
जैन दर्शन में मान्य जीव या आत्मा अनेक हैं, जो तत्त्वतः समान हैं, किन्तु कर्म-पुद्गल के संयोग से उनके गुणों अथवा शक्तियों के विकास में न्यूनाधिक्य पाया जाता है अर्थात् विकास की दृष्टि से उनमें भेद है। जीवों के इस विकास-क्रम में निम्न से उच्च की ओर एक निरन्तरता पाई जाती है अथवा विकास के अनेक सोपान हैं। जैन दार्शनिकों ने जीवों के इस विकास-क्रम को अथवा विकास के विभिन्न सोपानों को समझने, उनकी व्याख्या करने और सिद्धान्त-रूप देने के लिए 'गुणस्थान' की अवधारणा विकसित की। 'गुणस्थान' की अवधारणा को लेकर अनेक प्रश्न उठते हैं जिनमें एक मुख्य प्रश्न है - 'गुणस्थान' का अन्वेषण-स्थान अथवा हेतु क्या है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए जैन दार्शनिकों ने एक अन्य अवधारणा विकसित की, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'मार्गणास्थान' कहा गया है।
प्रश्न उठता है कि 'मार्गणास्थान' से क्या तात्पर्य है ? इस प्रश्न का एक जवाब हमें धवला में, जो कि षट्खण्डागम की टीका है, मिलता है। धवला' में 'मार्गणास्थान' का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि सत् अर्थात् अस्तित्व आदि से युक्त चौदह 'जीवसमास” अर्थात् गुणस्थान जिसमें अथवा जिसके द्वारा खोजे जाते हैं उसे 'मार्गणास्थान' कहते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि