Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 57
________________ जैनविद्या 14-15 थी कि यह संस्थान एक विशाल ज्ञानकेन्द्र बने और इसमें षट्खंडागम आदि आगमग्रन्थों पर विशेषरूप से कार्य किया जाय। संयोग से आर्यनन्दि को वीरसेन के रूप में ऐसे प्रतिभासम्पन्न सुयोग्य शिष्य की प्राप्ति हुई जिसके द्वारा उन्हें अपनी चिरभिलाषा फलवती होती दीख पड़ी। वीरसेन, जो संभवतया स्वयं राजकुलोत्पन्न थे और यह संभावना है कि राजस्थान के सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ के मोरी (मौर्य) राज धवलप्पदेव के कनिष्ठ पुत्र थे, गुरु की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए सन्नद्ध हो गये। आचार्य वीरसेन ने इसी वाटनगर स्थित ज्ञानकेन्द्र में धवला टीका जैसे विशाल ग्रंथ एवं अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। यह ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि श्री वीरसेन स्वामी को संस्कृत एवं प्राकृत उभय भाषाओं पर पाण्डित्यपूर्ण पूरा अधिकार था। वे अपने समय के सर्वोपरि 'पुस्तकशिष्य' एवं आचार्य जिनसेन के शब्दों में 'कविचक्रवर्ती' थे। इन्द्रमुनि के श्रुतावतार से ज्ञात होता है कि बप्पदेव द्वारा सिद्धान्त ग्रंथों की टीका लिखी जाने के उपरान्त एलाचार्य सिद्धान्त ग्रंथों के ज्ञाता हुए। गुरु की प्रेरणा से वीरसेन आगमों एवं सिद्धान्त ग्रंथों के विशिष्ट ज्ञानी एलाचार्य की सेवा में पहुंचे जो उस समय चित्रकूटपुर (उपर्युक्त चित्तौड़) में ही निवास करते थे। उनके सान्निध्य में रहकर उन्होंने कम्मपयडि पाहुड आदि आगमों एवं . अन्य सिद्धान्त ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। तदनन्तर वे गुरु की अनुज्ञा प्राप्तकर वाटग्राम वापिस आए और लगभग आठवीं शती ई. के मध्य गुरु के निधनोपरान्त संस्थान (ज्ञानकेन्द्र) का आचार्यत्व (कुलपतित्व) सम्भाला। वहां आनतेन्द्र द्वारा निर्मित जिनालय में उन्हें बप्पदेव की व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका प्राप्त हुई। इस टीका के स्वाध्याय से आचार्य वीरसेन ने अनुभव किया कि सिद्धान्त के अनेक विषयों का निर्वचन छूट गया है तथा अनेक स्थलों पर विस्तृत सिद्धान्त स्फोटन सम्बन्धी व्याख्याएं भी अपेक्षित हैं । छठे खण्ड पर व्याख्या लिखी ही नहीं गई है। अत: एक नवीन विवृति लिखने की परमावश्यकता है। परिणामस्वरूप आचार्य वीरसेन ने व्याख्याप्रज्ञप्ति से प्रेरणा प्राप्तकर 'धवला' एवं 'जयधवला' नामक टीकाएं लिखीं। इन आचार्यपुंगव ने जो विशाल साहित्य-सृजन किया उसमें षट्खंडागम के प्रथम पांच खण्डों पर निर्मित 'धवल' नाम की 72000 श्लोक परिमाण महती टीका, छठे खण्ड 'महाबन्ध' का 30000 श्लोक परिमाण सटिप्पण सम्पादन 'महाधवल' के रूप में, कसाय-प्राभृत की 'जयधवल' नाम्नी टीका का तृतीयांश जो लगभग 26500 श्लोक परिमाण है, सिद्धभूपद्धति नाम का गणित शास्त्र तथा दूसरी शती ई. के यतिवृषभाचार्यकृत तिलोयण्णत्ति ग्रंथ की किसी जीर्णशीर्ण प्राचीन प्रति पर से उद्धार करके उसका अन्तिम संस्करण तो है ही, अन्य कोई रचना हो उसका अभी पता नहीं चला। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने अपने संस्थान में एक अत्यन्त समृद्ध ग्रन्थ भण्डार संग्रह किया होगा। लेखन के लिए टनों ताड़पत्र तथा अन्य लेखन-सामग्री की आवश्यकता-पूर्ति के लिए भी वहाँ इन वस्तुओं का एक अच्छा बड़ा कारखाना होगा। अपने कार्य में तथा संस्थान की अन्य गतिविधियों में योग देनेवाले उनके दर्जनों सहायक और सहयोगी भी होंगे। उनके सधर्मा के रूप में जयसेन का और प्रमुख शिष्यों के रूप में दशरथ गुरु, श्रीपाल, विनयसेन, पद्मसेन, देवसेन और जिनसेन के नाम तो प्राप्त होते ही हैं, अन्य समकालीन विद्वानों में उनके दीक्षागुरु आर्यनन्दि और विद्यागुरु एलाचार्य के अतिरिक्त दक्षिणापथ में गंगनरेश श्रीपुरुष

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