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जैनविद्या 14-15
भारती-दिव्यवाणी भारती-भरत चक्रवर्ती की आज्ञा के समान षट् खण्ड में अस्खलित थी। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार षट् खण्ड भूमण्डल पर चक्रवर्ती भरत की आज्ञा का पालन अबाध गति से किया जाता था अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी पर उनकी आज्ञा व्याप्त थी उसी प्रकार छः खण्डरूप षट्खण्डागम नामक परमागम में प्ररूपित आचार्य वीरसेन की भारती-वाणी का वर्चस्व निर्बाधरूप से संचारित हुआ। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आचार्य वीरसेन ने षट् खण्डागम पर 'धवला' एवं 'जयधवला' नामक टीकाएं लिखकर सैद्धान्तिक विषयों में तो अपना पाण्डित्यरूप प्रदर्शित किया ही, भारती का वर्चस्व भी प्रतिपादित किया। इन दोनों टीकाओं के अध्ययन-अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उन्होंने मूलग्रंथ में आए हुए विषयों की व्याख्या बहुत ही स्पष्टरूप से की है जिसका खण्डन किया जाना सम्भव नहीं है।
आचार्य वीरसेन की वाणी की एक विशेषता यह थी कि वह मधुर थी और समस्त प्राणियों को उसी प्रकार प्रमुदित करनेवाली थी जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती की आज्ञा वैभव से परिपूर्ण धन-सम्पत्तिवालों को प्रसन्न करनेवाली थी। सम्राट भरत की आज्ञा का प्रभाव क्षेत्र, संचार और व्याप्ति उनके द्वारा आक्रान्त सम्पूर्ण पृथ्वी पर थी तो कुशाग्रबुद्धि, अप्रतिम वैदूष्य और अगाध पाण्डित्य के धनी कविचक्रवर्ती आचार्य वीरसेन की निर्मल भारती से सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण आदि समस्त विषय आक्रान्त थे। उपर्युक्त कथन की पुष्टि जयधवला में प्रतिपादित निम्न प्रशस्ति से होती है -
प्रीणित प्राणिसम्पत्तिराक्रान्ता शेषगोचरा ।
भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्डे यस्य नास्खलत् ॥ वे विद्वानों, ज्ञानियों एवं प्राज्ञ पुरुषों के द्वारा 'प्रज्ञा श्रमण' कहलाते थे। प्रज्ञा चार प्रकार की मानी गई है - औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी। जैसा कि धवला (पृ. 9, पृ. 81) में प्रतिपादित है - "अट्टिठ-अस्सुदेसु अढेस णाणुप्पायण जोग्गत्तं पण्णा णाम।" अर्थात् अदृष्ट और अश्रुत विषयों में ज्ञान की योग्यता होना प्रज्ञा कहलाती है। इस प्रज्ञा के विद्यमान रहने से ही प्राज्ञ पुरुष उन्हें 'प्रज्ञा श्रमण' कहते थे। उनकी स्वाभाविक प्रज्ञा, अदृष्ट और अश्रुत पदार्थों को जानने/अवगत करनेरूप योग्यता को देखकर सर्वज्ञ के विषय में विज्ञजनों की शंका सर्वथा निर्मूल हो गई थी। अभिप्राय यह है कि तत्कालीन विज्ञजनों को यह शंका हुई कि एक व्यक्ति सर्वज्ञ (समस्त अदृष्ट-अश्रुत पदार्थों का ज्ञाता) कैसे हो सकता है? किन्तु जब अप्रतिम प्रीणित प्राणि भारती - जिनवाणीधारक आचार्य वीरसेन से उनका साक्षात्कार हुआ और उन्हें अनुभव हुआ कि जब एक व्यक्ति आगम द्वारा इतना बड़ा ज्ञानी हो सकता है तो अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञानधारी सर्वज्ञ, एक ही काल में समस्त पदार्थों का ज्ञाता हो सकता है। इसमें सन्देह नहीं है कि आचार्य वीरसेन अपने समय के एक उच्चकोटि के विद्वान थे। वे दोनों सिद्धान्त ग्रंथों के रहस्य के अपूर्व वेत्ता थे तथा प्रथम सिद्धान्तग्रंथ षट् खण्डागम के छहों खण्डों में तो उनकी भारती भरत की आज्ञा की भांति अस्खलित गति थी। उन्होंने अपनी दोनों टीकाओं में जिन विविध विषयों का संकलन तथा निरूपण किया है उन्हें देखकर यदि उस समय के भी विद्वानों की सर्वज्ञ के