Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 51
________________ जैनविद्या 14 णमो अरिहंताणं 'णमो अरिहंताणं' अरिहननादरिहन्ता। नरकतिर्यक्कुमानुष्यप्रेतावासगताशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहः। अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः। स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामहत्वाद्योग्यत्वादहन्तः। षट्खण्डागम (पु. 1, पृ. 43-45) णमो अरिहंताण' अरिहंतों को नमस्कार हो।अरि अर्थात् शत्रुओं के नाश करने से 'अरिहंत' हैं। नरक, तिर्यच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होनेवाले समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को 'अरि' अर्थात् शत्रु कहा है। अथवा, सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं, क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पाँचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजाएं देव, असुर और मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक अर्थात् महान् हैं, इसलिए इन अतिशयों के योग्य होने से 'अर्हन्त' होते हैं।

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