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जैनविद्या 14-15
श्री वीरसेनाचार्य एवं उनके पूर्वाचार्यों की सामग्री उपलब्ध है । इस पर, गणितीय न्यायशास्त्र विषयक एक ग्रंथ भी बनाया जा सकता है जो अर्थसंदृष्टिमय हो और आधुनिक राशि- सिद्धान्त संदर्भ को लिये हुए हो । आज जितना भी आधुनिक न्याय में कार्य हुआ है वह लाखों पृष्ठों व पत्रों में उपलब्ध है तथा नई विधियों से भरा हुआ है, दर्शन, सिद्धान्त, विज्ञानादि के परिप्रेक्ष्य में यह अंशदान नये आयामों तक ले जा सकता है।
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आज का तर्क शास्त्र संकल्पनाओं का विभाजन, वर्गीकरण, परिसीमन और सामान्यीकरण तो करता ही है, साथ ही संकल्पनाओं की व्याप्तियों के साथ संक्रियाओं का ज्ञान भी उपलब्ध कराता है, जैसा दिगम्बर जैन कर्म सिद्धान्त विषय धवला, जयधवला भाव-राशियों का बोध कराने में यही सब राशि - सिद्धान्त का उपयोग निर्देशित करते हैं । व्यवहार, सत्य एवं निश्चय का निर्णय करनेवाली नई विधियों को भी हमें तुलना में रखना है। अचर और चर राशियों के लिए गोम्मटसारादि ग्रंथों में संदृष्टियां हैं, किन्तु अनेक गर्भित अभिप्रायों को शब्दों द्वारा निदर्शित किया जाता रहा है अथवा बिना उल्लेख किये समझा जाता रहा है। इन सभी को एक नया संदृष्टिमय रूप देना है ताकि ज्ञान के नये क्षितिज खुल सकें। सम्यक् चिन्तन एवं अनुमान की नवीन विधाएं, खंडन-मंडन के नये आयाम आदि से भी तुलना करना है । और कर्म - सिद्धान्त के गणित को देखते हुए उसके प्रमाणन की समस्याओं हेतु तर्कशास्त्र या न्याय में नई तकनीकों को लाना है। तर्कशास्त्र के अनेक प्रकार सामने आ चुके हैं, यथा अंतः प्रज्ञात्मक, रचनात्मक, बहुमूल्यक, निश्चयमात्रिक, सकारात्मक, परा-अव्याघातक आदि। इन सभी के दृष्टिकोणों का स्याद्वाद, अनेकान्त तथा अन्य विधिपरक जैन न्याय अध्ययन आवश्यक हो गया है।
तुलनात्मक
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अतः श्री वीरसेनाचार्य का अंशदान जो न्याय में कर्मसिद्धान्त विषयक गणित विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ, गर्भित, है, उसे अब वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। उसे शोध की वस्तु बनाना अगली पीढ़ी का परम कर्त्तव्य है ।
1. Jain, L. C., and Jain, C. K., "The Jaina Ulterior Motive of Mathematical Philosophy”, लेख, आस्था और चिन्तन, आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज, अभिनन्दन ग्रंथ, दिल्ली, 1987, पृ. 41-59, (खंड जैन प्राच्य विद्याएं) । और भी देखिए - Jain, L. C. System Theory in Jaina School of Mathematics, I, I.J.H.S., Vol. 14, No. 1, 1979, pp. 29-63, - II ( with Ku. Meena Jain), I.J.H.S., Vol. 24 (3); 1989, pp. 163-180.
2. Jain, L. C., "Set Theory in Jaina School of Mathematics", I.J.H.S., Calcutta, vol. 8, no. 1., 1973, pp 1-27.
Jain, L.C., “Divergent sequences Locating Transfinite Sets in Trilokasāra", I.J.H.S. vol. 12, no. 1, 1977, pp 57-75.
3. धवला, पु. 3, पृ. 16 आदि ।