Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 48
________________ जैनविद्या 14-15 इससे प्रतीत होता है कि अमूर्त कल्पनाओं में रहनेवाली राशियों में जब ये सभी गणित की संक्रियाएं हो सकती हैं, भाव प्रमाणों में ही, तो भावों का भी गणित होता है जो पुनः गणितीय न्याय द्वारा पुष्ट किया जाता है। जहां एक ओर कैण्टर का अनन्त राशियों का सिद्धान्त जोर पकड़ता जा रहा था, वहां उसे परिपुष्ट करने हेतु तथा गणित को नयी नींव देने हेतु गणितीय न्याय का रूप ऐसा कुछ निखरा कि न्याय को संदृष्टिमय बनाने का प्रयास होने लगे। इसे Symbolic Logic कहते हैं। प्राचीन एवं मध्य युग में इस तरह का कोई प्रयत्न नहीं दिखाई देता, केवल संदृष्टि एकदो स्थान में आईं पर चर रूप लेकर नहीं। संदृष्टियों के मध्य कोई गणना जैसी वस्तु अन्यत्र नहीं, है तो केवल कर्म सिद्धान्त में अस्पष्ट रूप से प्रकट, परन्तु धवला में शब्दों में ही। विशेष रूप से अधस्तन एवं उपरिम विकल्प में प्राप्य है। बीजाक्षरों द्वारा न्याय का गणित बनाया जाने लगा, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग लाइनिज द्वारा किया गया। पश्चात् बूल और दे मोर्गों द्वारा इंग्लैण्ड में नवीं सदी के प्रथमार्ध में संदृष्टिमय न्याय की नींव डाली गयी। इनमें प्रथम बार न्याय का कलन, राशियों के कलन के रूप में संक्रियाओं के पूर्ण नियमों सहित अवतरित हुआ। इसका विकास बूलीय बीजगणित रूप में हुआ। भाव राशियों का संदृष्टि मय कलन जैन दिगम्बर अर्थसंदृष्टि अधिकारों में तथा उनसे 400 वर्ष पूर्व कर्णाटक वृत्ति में द्रष्टव्य है। पूर्व में हम बतला आए हैं कि किस प्रकार कैण्टर के राशि सिद्धान्त में विरोधाभास आ गया था। जो हमने केवलज्ञान राशि की स्थापना की, सभी सिद्धजीवों एवं केवलियों की भी केवलज्ञान राशि भी मिलाई जावे वह उतनी ही रहेगी। प्रत्येक सिद्ध जीव की केवलज्ञान राशि भी उतनी ही होगी, अत: यहां पूर्वापर विरोध उठाने का प्रश्न नहीं उठता है, उससे एक अधिक अविभागी प्रतिच्छेद भी नहीं। उसमें आनेवाली अनन्त उपराशियों के मध्य भी अल्प-बहुत्व स्थापित किया गया है। जघन्य और उत्कृष्ट और उनके बीच रहनेवाली राशियां भी उस अल्प-बहुल गणना में आती हैं। आज उसके लिए शब्द है - 'Comparability'। जब धाराओं द्वारा राशियों को विभिन्न पद स्थानों में उत्पन्न करते हैं तो इस विज्ञान को स्थल विज्ञान या topology कहते हैं। पूर्वापर विरोधाभास का सबसे प्राचीन उदाहरण एपीमेनिडीज का मिथ्याभास माना जाता है जो किसी असत्यवादी के सम्बन्ध में है। एपीमेनिडीज नामक क्रिटान का निवासी कहता है - "मैं झूठ बोल रहा हूँ।" यदि यह कथन सत्य है तो वह झूठ बोल रहा है और यह कथन झूठ है। यदि यह कथन असत्य है तो वह झूठ नहीं बोल रहा है अतः कथन सत्य है। इसी प्रकार मान लो काले तख्ते पर एक वाक्य लिखा है - "काले तख्ते के इस पैनल पर लिखा मात्र वाक्य असत्य है।" यदि यह वाक्य सत्य है तो उसे असत्य होना चाहिए और विलोमतः भी। ___एक और मनोरंजक पहेली है जिसे मगर का विभ्रम (dilemma) कहा जाता है। मगर ने एक बालक को चुरा लिया है और वह उसके पिता से कहता है - "मैं बालक को वापिस कर दूंगा यदि तुम सही-सही अंदाज लगाओ कि मैं बालक को वापिस करूंगा या नहीं।" पिता उत्तर देता है - "तुम बालक को वापिस नहीं करोगे।" बतलाओ कि मगर को क्या करना चाहिये? इसी प्रकार राशि-सिद्धान्त में अनेक प्रकार के वचन, वाक्य, कथन, ज्ञापक सूत्र षखंडागम, कषायप्राभृत एवं उनकी टीकाओं में आए हुए हैं, जिन्हें न्यायसंगत प्रमाणित करने में

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