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जैनविद्या 14-15
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प्ररूपणा नहीं है, अतः काल प्रमाण की प्ररूपण की अपेक्षा क्षेत्र प्रमाण की प्ररूपण अतिसूक्ष्म रूप से वर्णित है, यह बात जानी जाती है'। एक और श्लोक वे उद्धृत करते हैं, क्या इसी के समर्थन में ? -
सुहुमो य हवदि कालो तत्तो य सुहुमदरं हवदि खेत्तं ।
अंगुल-असंखभागे हवंति कप्पा असंखेज्जा ॥10॥ नहीं ! वे कहते हैं कि यह घटित नहीं क्योंकि इससे क्षेत्र प्ररूपणा के अनन्तर द्रव्य-प्ररूपणा का प्रसंग प्राप्त होता है। कारण यह है कि अनन्त परमाणुरूप प्रदेशों से निष्पन्न एक द्रव्यांगुल में अवगाहन की अपेक्षा एक क्षेत्रांगुल ही है। किन्तु गणना की अपेक्षा अनन्त क्षेत्रांगुल होते हैं, इसलिए उपर्युक्त न्यायसंगत नहीं।
4. आधुनिक गणितीय राशि न्याय सिद्धान्त में एक-एक, एक-अनेक आदि संवाद (correspondence) द्वारा राशियों की समानता-असमानता आदि स्थापित करने को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है, जिसका प्रयोग गैलिलियो, कैण्टर आदि ने किया। इसे ही वीरसेनाचार्य ने शंकाकार की शंका - 'काल प्रमाण की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों का प्रमाण कैसे निकाला गया है?' होने पर उसे निम्न प्रकार समाधानित किया है जो 'दिगम्बर जैन इतिहास' की उत्कृष्ट सूझबूझ है - 'एक ओर अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों को स्थापित करके
और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि को स्थापित करके काल के समयों में से एक-एक समय और युगपत् उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिये। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीवराशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं ; परन्तु मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता है।'
जब शंकाकार कहता है कि मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण भले ही समाप्त हो जाओ परन्तु काल के सम्पूर्ण समय समाप्त नहीं होते, क्योंकि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और लोकाकाश ये तीनों ही समान होते हुए स्तोक हैं तथा जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, काल के समय और आकाश के प्रदेश ये उत्तरोत्तर वृद्धि की अपेक्षा अनन्त गुणे हैं । वीरसेनाचार्य तब उत्तर देते हैं कि यहां अतीत काल का ही ग्रहण किया गया है, सम्पूर्ण काल राशि का नहीं। कहा भी है -
कालो तिहा विहत्तो अणागदो वट्टमाणतीदो य ।
एदेसु अदीदेण दु मिणिज्जदे जीव रासी दु ॥21॥ किसी भी अनन्तात्मक राशि से बड़ी अनन्तात्मक राशि बनाने की विकर्ण विधि खोजने का श्रेय जार्ज कैण्टर को है। जैसे प्राकृत संख्याएं जो एक से अनन्त तक जाती हैं, उनकी राशि को गण्य कहा जाये, तो उसकी तुलना में सम्पूर्ण रीयल (real) संख्याओं की राशि को अगण्य कहा जाता है। इसके विस्तृत विवरण से पता चलता है कि भंग विधि द्वारा ही एक अनन्त से बड़ा अनन्त एक-एक या एक-अनेक संवाद द्वारा निर्मित किया जा सकता है।