Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 45
________________ 88 जैनविद्या 14-15 में उस एक प्रदेश को छोड़कर अन्त इस संज्ञा को प्राप्त होनेवाला दूसरा प्रदेश नहीं पाया जाता है, इसलिये परमाणु अप्रदेशानन्त है। ऐसी स्थिति में द्रव्यगत अनन्त संख्या की अपेक्षा अनन्त संज्ञा को प्राप्त होनेवाले नोकर्मद्रव्यानन्त में वह अप्रदेशानन्त कैसे अन्तर्भूत हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता है, इसलिये अप्रदेशानन्त भी स्वतंत्र है? शंका - द्रव्य के प्रति एकत्व तो उनमें पाया ही जाता है? समाधान - इन अनन्तों में यदि द्रव्य के प्रति एकत्व पाया जाता है तो रहा आवे, परन्तु इतने मात्र से इन अनन्तों में अन्य-अन्य प्रकार से आये हुए आनन्त्य के प्रति एकत्व नहीं हो सकता है। यही थी श्री वीरसेनाचार्य की न्याय शैली! आगम का आधार था पूर्वापर विरुद्धादि दोषों के समूह से रहित और सम्पूर्ण पदार्थों के द्योतक आप्त वचन। आप्त, अठारह दोषों रहित होने से, सत्य वचन ही का कथन करता है। ____ 2.4वह एक ज्ञापक सूत्र लेते हैं, 'मिथ्यादृष्टि जीव काल की अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं। दोनों ही राशियां अनन्तान्त हैं परन्तु उनके मान अलग-अलग हैं। एक-दूसरे से बड़ा है, तभी एक-दूसरे के द्वारा अपहत नहीं हो सका है। दोनों राशियों का अस्तित्व है। प्रथम राशि को जघन्य अनन्तान्त पर वर्गित प्रक्रिया से अनेक राशियाँ उत्पन्न की जाती हैं जिनमें अनेक अनन्तात्मक राशियां प्रक्षिप्त होती हैं और अन्ततः अर्द्धच्छेद प्रक्रियाओं आदि के पश्चात् मिथ्यादृष्टि राशि को प्राप्तकर बतलाया जाता है। यहाँ एक तो अनन्तात्मक राशियों में परिकर्माष्टक आदि गणित प्रक्रियाओं का प्रयोग न्यायशास्त्र के अनुसार है। वे कहते हैं - 'अनन्तान्त के विषय में गुणकार और भागहार अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्त रूप ही होना चाहिये।' यह वचन परिकर्म नामक टीका में है जो सम्भवतः कुन्दकुन्द एलाचार्य की है। पुनः वे कथन करते हैं - 'ऊपर जो जघन्य परीतानन्त से विशेषाधिक कह आये हैं वह विशेषाधिक असंख्यात रूप है' - यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि व्यय होने पर समाप्त होनेवाली राशि को अनन्तरूप मानने में विरोध आता है। इस प्रकार कथन करने से अर्धपुद्गल परिवर्तन का राशि के साथ क्या व्यभिचार हो जायेगा? वे कहते हैं - यह बात नहीं, क्योंकि अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल को उपचार से अनन्त रूप माना गया है। 3. स्थूल और सूक्ष्म संबंधी न्याय भी गणित का विषय बनता है। क्या क्षेत्र प्रमाण का उल्लंघन करके काल प्रमाण का कथन किया जा सकता है? वीरसेनाचार्य समाधान देते हैं - 'जो स्थूल और अल्पवर्णनीय होता है उसका पहले ही कथन करना चाहिए।' फिर शंका होती है - 'काल प्रमाण की अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण बहुवर्णनीय कैसे है?' वीरसेन पुनः समाधान देते हैं - 'क्षेत्र प्रमाण में लोक प्ररूपण करने योग्य है। उसका भी जगच्छ्रेणी के प्ररूपण बिना ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए जगच्छ्रेणी का प्ररूपण करना चाहिये। जगच्छ्रेणी का भी रज्जु के प्ररूपण के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये रज्जु का प्ररूपण करना चाहिये। रज्जु का भी उसके अर्धच्छेदों का कथन किये बिना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये रज्जु के छेदों का प्ररूपण करना चाहिये। रज्जु के छेदों का भी द्वीपों और सागरों के प्ररूपण के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये द्वीपों और सागरों का प्ररूपण करना चाहिये। परन्तु काल प्रमाण में, इस प्रकार बड़ी

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