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पुण्यार्थस्यभिधायकः
जैनविद्या 14-15
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मङ्गशब्दोऽयमुद्दिष्टः पुण्यार्थस्याभिधायकः । तल्लातीत्युच्यते सद्भिर्मङ्गलं मलार्थिभिः ॥ 16 ॥ पापं मलमिति प्रोक्तमुपचारसमाश्रयात् । तद्धि गालयतीत्युक्तं मङ्गलं पण्डितैर्जनैः ॥ 17 ॥ षट्खण्डागम (पु. 1, पृ. 35 )
यह मंग शब्द पुण्यरूप अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला माना गया है। उस पुण्य को जो लाता है उसे मङ्गल के इच्छुक सत्पुरुष मंगल कहते हैं ॥16॥
उपचार से पाप को भी मल कहा है। इसलिए जो उसका गालन अर्थात् नाश करता है उसे भी पण्डितजन मंगल कहते हैं ॥ 17 ॥