Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 36
________________ जैनविद्या 14-15 एक टीका के बाद लिखी जानेवाली दूसरी टीका अपनी पूर्ववर्त्ती टीका की कमियों को पूरा करने का प्रयास करती है । बापदेव की टीका के अध्ययन के बाद आचार्य वीरसेन ने अनुभव किया कि बापदेव की टीका में सिद्धान्त के अनेक पक्षों का निर्वचन नहीं हो पाया है और अगर हुआ भी है तो उसमें समग्रता नहीं आ पाई है। इन्होंने यह भी अनुभव किया कि अनेक स्थलों पर सिद्धान्त को स्पष्ट करने के निमित्त पुनर्व्याख्या अपेक्षित रह गई है, इसलिए इस महाग्रन्थ की एक नई विवृत्ति लिखना आवश्यक है। फलत: इन्होंने 'धवला' और 'जयधवला' नाम की टीकाएँ लिखीं। 29 आचार्य वीरसेन की धवला और जयधवला टीकाएँ 'उपनिबन्धन' कही जा सकती हैं । आचार्य वीरसेन में कवि, दार्शनिक और सैद्धान्तिक इन तीन व्यक्तित्वों का समप्रतिभ समाहार हुआ है। इनके शास्त्रज्ञ शिष्य आचार्य जिनसेन ने इन्हें उपनिबन्धनकर्त्ता कहा है। उपनिबन्धन में विषय का प्रस्तुतीकरण परम्परागत विचारों के अनुमोदन के साथ किया जाता है। साथ ही, प्रस्तूयमान विषय या वस्तु पर उसकी प्रकृति, स्वरूप, गुण-दोष आदि की दृष्टि से तर्कपूर्ण विवेचना या समालोचना की जाती है। आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने कहा है कि आचार्य वीरसेन की टीका को इसलिए 'उपनिबन्ध' की संज्ञा दी गई है कि उसमें विचारों की प्रगल्भता, अनुभव की परिपक्वता, सांस्कृतिक उपकरणों की प्रचुरता तथा विषय की प्रौढ़ता है (द्रष्टव्य - 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा, पृ. 325 ) । अवश्य ही, 'धवला' या 'जयधवला' टीका पर सांस्कृतिक तत्त्वों के अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण शोधकार्य हो सकता है। आचार्य वीरसेन की धवला टीका में निमित्त, ज्योतिष एवं न्यायशास्त्रीय सूक्ष्म तत्त्वों के सांस्कृतिक विवेचन के साथ ही तिर्यंच और मनुष्य के द्वारा सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम की प्राप्ति की विधि का विशद उल्लेख हुआ है। इस सन्दर्भ में एक मूल सन्दर्भ का हम आस्वाद लें - - " एत्थ वे उवदेसा - तं जहा - तिरिक्खेसु वेमास मुहुत्त - पुधस्सुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च जीवो पडिवज्जदि । मणुस्सेसु गब्भादि - अट्ठ - वस्सेसु अंतो- मुहुत्तब्भहिएसु सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति ।" (धवला टीका, पुस्तक 5, पृ. 32 ) जयधवला टीका की प्रशस्ति (पद्य - सं. 39) से इस बात का संकेत मिलता है कि षट्खण्डागम की विभिन्न टीकाओं में आचार्य वीरसेन की धवला या जयधवला टीका ही यथार्थ है। शेष टीकाएँ पद्धति या पंजिका - मात्र हैं। मूल पंक्ति इस प्रकार है - 'टीका श्रीवीरसेनीया शेषाः पद्धति-पञ्जिकाः ।' आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री (द्रष्टव्य - तत्रैव, पृ. 326-27) ने धवला टीका के सन्दर्भ में विशद विवेचन किया है, जिसका सार यह है कि आचार्य वीरसेन ने अपनी दोनों टीकाओं (धवला और जयधवला) में सैद्धान्तिक तत्त्वों का भरपूर समावेश किया है। समस्त श्रुतज्ञान की जैसी सांगोपांग व्याख्या आचार्य वीरसेन ने की है वैसी व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है। वीरसेन स्वामी ने गुरु-परम्परा प्राप्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत तथा कषायप्राभृत को इन दोनों टीकाओं में यथावत् परिनिबद्ध किया है। आगमिक परिभाषा के अनुकूल ये दोनों टीकाएँ दृष्टिवाद के अंगभूत उक्त दोनों प्राभृतों का ·

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