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जैनविद्या 14-15
मंगल के प्रकार
कतिविधं मङ्गलम् ? मङ्गलसामान्यात्तदेकविधम्, मुख्यामुख्यभेदतो द्विविधम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्रिविधं मङ्गलम्, धर्मसिद्धसाध्वर्ह द्वेदाच्चतुर्विधम्, ज्ञानदर्शनत्रिगुप्तिभेदात् पञ्चविधम्।
अथवा मंगलम्हि छ अहियाराहे दंडा वत्तव्वा भवंति। तं जहा, मंगलं मंगलकत्ता मंगलकरणीयं मंगलोवायो मंगलविहाणं मंगलफलमिदि। एदेसिं छण्हं पि अत्थो उच्चदे। मंगलत्थो पुबुत्तो। मंगलकत्ता चोइस-विजा-ट्ठाण-पारओ आइरियो। मंगल-करणीयं भव्व-जणो।मंगलोवायो ति-रयण-साहणाणि। मंगलविहाणं एय-विहादि पुव्वुत्तं।मंगलफलं अब्भुदय-णिस्सेयस-सुहाइ।
षट्खंडागम (पु. 1, पृ. 40) - मंगल कितने प्रकार का है ?
मंगल सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार का है। मुख्य और गौण के भेद से दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। धर्म, सिद्ध, साधु और अर्हन्त के भेद से चार प्रकार का है। ज्ञान, दर्शन और तीन गुप्ति के भेद से पाँच प्रकार का है।
- अथवा, मंगल के विषय में छह अधिकारों द्वारा दंडकों का कथन करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं - 1. मंगल, 2. मंगलकर्ता, 3. मंगलकरणीय, 4. मंगल-उपाय, 5. मंगल-भेद और 6. मंगलफल। अब इन छः अधिकारों का अर्थ कहते हैं। मंगल का अर्थ तो पहले कहा जा चुका है। चौदह विद्यास्थानों के पारगामी आचार्य-परमेष्ठी मंगलकर्ता हैं। भव्यजन मंगल करने योग्य हैं। रत्नत्रय की साधक सामग्री मंगल का उपाय है। मंगल के भेद भी पहले बताये गये हैं। अभ्युदय और मोक्ष-सुख मंगल का फल है।