________________
जैनविद्या 14-15
जगतुंगदेवरजे रियम्हि कुम्भम्हि राहुणाकाणे । सूरेतुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ॥7॥ चावम्हि तरणिवुत्ते सिंधे सुक्कम्मि मीणे चंदम्मि । कत्तिय मासे एसा टीका हु समाणिया धवला ॥8॥ वोहणराय-णरिंदे णरिंदचूड़ामणिम्हि भुंजते ।
सिद्धंतगंथमत्थिण गुरुप्पसाएण विगत्तासा ॥१॥ उपर्युक्त गाथा से ज्ञात होता है कि इस धवला टीका (जो अपने आप में मूलग्रंथ से भी अधिक श्रेष्ठतम है) के रचयिता श्री वीरसेनाचार्य हैं। इनके विद्यागुरु एलाचार्य और दीक्षागुरु आर्यनंदि तथा दादागुरु चन्द्रसेन हैं। टीकाकार ने भगवान ऋषभदेव की वंदना की है - जिनकी ज्ञानरूपी सूर्य की किरणावली से समस्त अज्ञानांधकार नष्ट हुआ। अरहंत, सिद्ध, साधु और आचार्य सभी कृपावंत हों। टीकाकार सिद्धान्त, छंद, ज्योतिष, व्याकरण, प्रमाण, न्याय, क्रियाकांड आदि विषयों में निष्णात हैं और भट्टारक पदवी से सुशोभित हैं । शक संवत् 738 के कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की तेरस के दिन राजा जगतुंग के बाद वोद्दणराय (अमोघवर्ष प्रथम) के राज्यकाल में यह टीका. समाप्त हुई। इस तिथि में सूर्य, चन्द्र, राहु आदि किस स्थिति में थे इसका भी दिग्दर्शन कराया है जो उनकी ज्योतिष संबंधी विदग्धता का घोतक है।
उपर्युक्त गाथाओं में से चौथी गाथा में 'पंचत्थुहण्यं' शब्द से स्वामी वीरसेन आचार्य स्वयं को पंचस्तूपान्वयी घोषित करते हैं। पंचस्तूपान्वयी क्या था - इस पर हम यहां विशद प्रकाश डालना चाहते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के मूलसंघ की वह एक विशिष्ट शाखा थी जो बाद में आचार्य अर्हद्बली के वर्गीकरण के बाद सेनान्वय या सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुई। पंचस्तूप का उल्लेख करते हुए आचार्य हरिषेण ने अपने 'कथाकोश' में मथुरा का वर्णन करते हुए वहाँ पंचस्तूपों के निर्माण का उल्लेख किया है - .
महाराजन् ! निर्माणान् खचितान् मणिनाम् वै ।
पंचस्तूपान्विधायायै समुच्चजिनवेश्मनाम् ॥ __पंचस्तूपान्वय निर्ग्रन्थ साधुओं का ईसा की पांचवीं सदी में एक प्रसिद्ध संघ था। इसके आचार्य गुहनन्दी का उल्लेख पहाड़पुर (जिला - राजशाही, बंगाल) से प्राप्त ताम्रपत्र में मिलता है। इसमें लिखा है कि गुप्त संवत् 159, ईस्वी सन् 478 में नाथशर्मा नामक ब्राह्मण द्वारा पंचस्तूपान्वयी आचार्य गुहनन्दी के बिहार में अर्हन्तों की पूजा-अर्चा के लिए ग्रामों और अशर्फियों का दान दिया गया (एपिग्राफिका इंडिका, भाग 10, पृष्ठ 59) आचार्य जिनसेन स्वामी ने गुरुणांगुरु आचार्य वीरसेन स्वामी की अपूर्ण जयधवला टीका को समाप्त करते हुए प्रशस्ति में वीरसेन स्वामी को पंचस्तूपान्वयी लिखा है। साथ ही अपने गुरु वीरसेन की प्रशंसा में बहुत कुछ लिखा जो निम्न दस श्लोकों में पठनीय है -
भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनम् । शासनम् कीरतेनस्य वीरसेन कुशेशयम् ॥7॥