Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 28
________________ बैनविद्या 14-15 21 सर्वप्रथम उनकी विशेषता थी 'बहुश्रुतशालिता'। आचार्य वीरसेन स्वामी के समय तक जैन तत्वज्ञान संबंधी अपार श्रुत भण्डार तैयार हो चुका था जिसका उन्होंने बड़ी गंभीरता से पारायण एवं चिन्तन-मनन किया था। उन सबका उल्लेख उन्होंने ग्रंथों का उल्लेख करते हुए आचार्यों का नाम लिखकर तथा 'वुत्तंच, उक्तंच, भणितम् च भणियं च' आदि शब्दों द्वारा उस श्रुत सामग्री का उल्लेख किया है जिसका उन्होंने पारायण किया था। इससे विदित होता है कि वे बहुश्रुतज्ञ थे। उनकी दूसरी विशेषता थी 'सिद्धान्त-पारगमिता'। धवला टीका में उन्होंने गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, गति, इन्द्रियादि 14 मार्गणाओं; उपयोग आदि 20 प्ररूपणाओं की सत्प्ररूपणादि सूत्रों में जो विस्तृत और गंभीर चर्चा की है उससे उनके जैनसिद्धान्त-विषयक अगाध ज्ञान का परिचय सरलता से जाना जा सकता है। तीसरी विशेषता थी उनकी 'ज्योतिर्विदत्व'। वे ज्योतिष-शास्त्र के विशेषज्ञ और मर्मज्ञ विद्वान थे। जिसका सरलसा उदाहरण धवला टीका प्रशस्ति की 6-7-8वीं गाथा से विदित हो जाता है। धवला टीका समाप्ति के समय सूर्य-चन्द्रादि ग्रहों की क्या स्थिति थी? आगम द्रव्य कृति के प्रसंग में वाचना के भेद नन्दा, भद्रा, जया, सौम्या आदि का उल्लेख उनके ज्योतिर्विदत्व का प्रमाण है। चौथी विशेषता 'गणितज्ञता' थी। जहाँ उन्होंने कृति के भेद किये हैं उनमें से चौथी गणना कृति के प्रसंग में सूत्र 66 को देशामर्शक बताकर धन, ऋण और धन-ऋण गणित को प्ररूपणीय कहा है। आगे इन तीनों के स्वरूप को प्रकट करते हुए संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, धन, धनाधन कलासवर्ण, राशिक, पंचराशिक, व्युत्कलना भागहार, क्षयक और कुट्टा-कार आदि का उल्लेख उनकी गणितज्ञता का द्योतक है। उनकी पांचवीं विशेषता है 'व्याकरण-पटुता'। सारी धवला टीका में जहाँ-तहाँ धातु, विभक्ति, समास, संधि का विशदता से विश्लेषण किया है। छठी विशेषता है 'न्यायनिपुणता'। धवला टीका में प्रायः शंकाएं उठाकर स्वयं ही उनका समाधान तार्किक-दृष्टि से करना तथा वादी-प्रतिवादी के रूप में उनका विश्लेषण कर प्रमाण, प्रमेय, व्याप्ति, सत्, असत् साध्य-सिद्धि, कार्य-कारण भाव आदि न्याय-संबंधी युक्तियों का सबलता से प्रयोग हुआ है। सातवीं और अन्तिम विशेषता है 'काव्यप्रतिभा'। आचार्य वीरसेन स्वामी जहां व्याकरण और न्याय जैसे रुक्ष और कठोर विषयों के विशेषज्ञ थे वहीं वे काव्य जैसी सरलसरस एवं सुकोमल पदावली के सर्जक भी थे। उनकी धवला टीका में जहाँ-तहाँ उपमा, रूपक, अनुप्रास, यमक, विरोधाभास आदि अलंकारों के दर्शन होते हैं वहाँ विभिन्न प्रकार के छन्दों का भी प्रयोग प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यमकालंकार का एक उदाहरण देखिए - पणमहकयभूयबलिं भूयवलिं केसवासपरिभयबलिं । विणिहयबम्हहपसरं वड्ढावियविमलणाणं बम्हहपसरं ॥ इन सबके अतिरिक्त आचार्य श्री वीरसेन स्वामी मंत्र-तंत्र और क्रिया-काण्ड के भी विशेषज्ञ और विदग्ध विद्वान थे।अपने गुरु वीरसेन स्वामी की स्तुति करते हुए भगवजिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण की उत्थानिका में लिखा है -

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