Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ जैनविद्या 14-15 आसीदासीदासन्नभव्यसत्व कुमुदवतीम् । मुद्वतींकर्तुमीशो यः शशांको इव पुष्कलः ॥8॥ श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारक पृथुप्रथः । पारदृश्वाधिविश्वानां साक्षादिव स केवली ॥१॥ प्रीणितप्राणीसंपत्तिराक्रान्ताशेष गोचरा । भारती भारतीवाज्ञा षटखण्डैयस्य नास्खलत् ॥10॥ यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाताः सर्वज्ञसदभावे निरारेका मनीषिणः ॥21॥ यं प्राहुः स्फुरदबोधदीधितिप्रसरोदयम् । श्रुतकेवलिनम् प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमण सत्तमम् ।। 22॥ प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तवार्धिवार्धित शुद्धधौः ।। सार्द्ध प्रत्येकबुद्धैर्यः स्पर्धतः धीद्धबुद्धिभिः ॥23॥ पुस्तकानां चिरत्नानां गुरुत्वमिहकुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥24॥ यस्तपोदीप्तकिरणैभव्या भोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेन पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥25॥ प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योऽप्यार्यनंदिनाम् । तस्यशिष्यांऽभवच्छ्रीमान् जिनसेनमिद्धधीः ॥26॥ उपर्युक्त उद्धरणों से प्रमाणित होता है कि केवल आचार्य वीरसेन स्वामी ही नहीं अपितु उनके गुरु आदि और पश्चाद्वर्ती शिष्य-प्रशिष्य भी पंचस्तूपान्वयी शाखा से संबंधित बने रहे। __पंचस्तूपान्वयी शाखा मथुरा या मथुरा के आस-पास के प्रदेश से संबंधित थे। दसवीं सदी के आचार्य इन्द्रनंदि ने अपने 'श्रुतावतार' नामक 187 श्लोकों वाली छोटी-सी रचना में मुनिसंघों के वर्गीकरण की रोचक घटना प्रस्तुत की है। आचार्य अर्हद्बली ने पुण्ड्रवर्धनपुर में शतयोजनवर्ती मुनियों को एकत्र कर युगप्रतिक्रमण किया, जब सब मुनिजन आ गये तो समागत मुनियों से आचार्यश्री ने पूछा कि क्या सभी मुनिजन आ गये हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि हाँ भगवन ! हम सब अपने-अपने संघसहित आ गये हैं। यह उत्तर सुनकर आचार्यश्री ने निश्चय किया कि अब जैनधर्म निष्पक्ष, भेदभाव से रहित नहीं रह सकेगा, निश्चय ही जैनधर्म में गणगच्छ-संघ आदि भेदों का समन्वय जरूरी हो गया है। अतः आचार्यश्री ने विभिन्न-संघों और गणों की स्थापना की। जो मुनि गुहा से आये थे उनमें से कुछ 'नन्दि' और कुछ 'वीर' संज्ञा से विख्यात हुए। जो अशोक वाटिका से आये थे उनमें से कुछ को 'अपराजित' और कुछ को 'देव' संज्ञा दी गई। जो मुनि पंचस्तूपों (मथुरा जनपद) से आये थे उनमें से कुछ को 'सेन' और कुछ को 'भद्र' नाम से संबोधित किया गया। जो मुनि शाल्मलि वृक्ष (सेमर) के मूल (कोटर) से आये थे उन्हें किसी को 'गुणधर' और किसी को 'गुप्त' कहा गया। जो खण्डकेसर (नागकेशर) के मूल से आये थे उनमें से कुछ को 'सिंह' कुछ को 'चन्द्र' संज्ञा दी गई। आगे आचार्य इन्द्रनंदि ने

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110