Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 27
________________ जैनविधा 14-15 'अन्येजगुः' कहकर कुछ मतभेद का उल्लेख भी किया है कि जो मुनि गुहा से आये थे उन्हें 'नन्दि', जो अशोकवन से आये थे उन्हें 'देव', जो पंचस्तूप से आये थे उन्हें 'सेन', जो सेमर वृक्ष के मूल से आये थे उन्हें 'वीर' और जो नागकेशर के मूल से आये थे उन्हें 'भद्र' की संज्ञा दी गई। किन्ही अन्य के मतभेद से गुहावासी नन्दि',अशोकवनवासी 'देव', पंचस्तूपवासी 'सेन', सेमरवृक्षवासी 'वीर' और नागकेसरवाले 'भद्र' तथा 'सिंह' कहलाये। जैसा कि निम्न श्लोकों से ज्ञात होता है - गुहायाः समागता ये मुनीश्वरास्तेषु । कांश्चिनधभिधानान कांश्चिद्वीरह्वयानकरोत् ॥91॥ प्रथितादशोकवाटात्समागता ये यतीश्वरास्तेषु । कांश्चिद् पराजिता ख्यान्कांश्चिदेवाह्वयानकरोत् ॥92॥ पंचस्तूप्यनिवासादुपागता येऽनगारिणस्तेषु ।। कांश्चितत्सेनाभिख्याकांश्चिद्भद्राभिधान करात् ॥१३॥ ये शाल्मलीमहाद्रुममूलाद्यतयोऽभ्युपागतास्तेषु । कांश्चिद्गुणधरसंज्ञान्कांश्चिद्गुप्ताह्वयान करोत् ॥94॥ ये खण्डकेसरद्रुममूलान्मुनयः समागतास्तेषु । कांश्चित्संहाभिख्यान्कांश्चिचच्चन्द्राह्वयानकरोत् ॥95॥ अन्येजगुर्गुहायाः विनिर्गतानन्दिनो महात्मानः । दैवाश्चाशोकवनात्वंचरतूप्यास्ततः सेनः ॥96॥ विपुलतरशाल्मली द्रुममूलगतावासवासिनो वीराः । भद्राश्चखण्डकेसर-तरुमूल-निवासिनो जाताः ।।97॥ गुहायाः वासितोज्येष्ठो द्वितीयोऽशोकवाटिकात् । निर्यातौ नंदिदेवाभिधानावाद्यावनुक्रमात् ॥98॥ . . पंचस्तूप्यास्तुसेनानां वीराणां शाल्मलीद्रुमः । खण्डकेसरनामा च भद्र सिंहोऽस्य सम्मतः ॥११॥ इस तरह पंचस्तूपान्वय सेनसंघ या सेनगण के नाम से विख्यात हुआ जिसके सभी आचार्य सेनान्त नाम से प्रसिद्ध हुए। उपर्युक्त पंचस्तूपान्वय की चर्चा को यहीं समाप्त करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी की अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डालेंगे। श्री वीरसेन स्वामी 'भट्टारक' पदवी से अलंकृत थे जो अत्यधिक महनीय और गरिमामयी थी। वे 17वीं-18वीं सदी के भट्टारकों की भांति शिथिलाचारी नहीं थे, अपितु सर्वसम्मत परमआदरणीय उपाधि से अलंकृत थे। उनके गुरु, दादागुरु तथा शिष्य-प्रशिष्य भी 'भट्टारक' की उपाधि से अलंकृत थे। जैसा कि भगवजिनसेनाचार्य ने आचार्य वीरसेन स्वामी की प्रशंसा करते हुए उनकी विशेषताओं का जयधवला की प्रशस्ति में उल्लेख किया है। उन्हें हम यहाँ संक्षिप्त रूप से लिखना चाहते हैं। स्वयं आचार्य वीरसेन ने अपने को सिद्धन्त छंद जोइस' आदि गाथा द्वारा विभिन्न विषयों का ज्ञाता लिखा है तथा भगवजिनसेनाचार्य ने भी पुष्टि की है उससे उनकी बहुविध प्रतिभा का परिचय उनकी टीका में उपलब्ध होता है।

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