Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 11
________________ जैनविद्या 14-15 कवि चक्रवर्ती ___ वीरसेन के इन अद्भुत गुणों के कारण ही जिनसेन प्रथम ने हरिवंशपुराण (1.39) में उन्हें कवि चक्रवर्ती के रूप में स्मरण किया - जितात्म-परलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते ॥39॥ यथा - जिन्होंने स्वपक्ष के लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं ऐसे वीरसेन स्वामी की निर्मल कीर्ति प्रकाशमान ही रही है। आदिपुराण के रचनाकार और वीरसेन के शिष्य जिनसेन (द्वितीय) ने अपने गुरु की स्तुति 'कविवृन्दारक' कहकर की है। उन्होंने आदिपुराण (1. 55-57) में लिखा है - 'वे अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोक-व्यवहार और काव्य-स्वरूप के महान ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणी के समक्ष औरों की तो बात ही क्या स्वयं सुर-गुरु बृहस्पति की वाणी भी सीमित-अल्प जान पड़ती है। सिद्धान्तषट्खण्डागम सिद्धान्त-ग्रंथ के ऊपर उपनिबन्धन-निबन्धात्मक टीका रचनेवाले मेरे गुरु वीरसेन भट्टारक के कोमल चरणकमल सर्वदा मेरे मनरूपी सरोवर में विद्यमान रहें।' जीवन परिचय धवला टीका की अंतिम प्रशस्ति में वीरसेन स्वामी ने अपने दीक्षा-गुरु का नाम आर्यनन्दी और दादा गुरु का नाम चन्दसेन बताया है। ये पंचस्तूप नाम की शाखा में हुए जिसका सम्बन्ध मथुरा और हस्तिनापुर से रहा। वीरसेन स्वामी ने एलाचार्य के पास चित्रकूट में कर्म सिद्धान्त का गहन अध्ययन किया। पश्चात् बड़ौदा के निकट बाटक ग्राम के जिनालय में गुरु वप्पदेवकृत षट्खंडागम टीका की अस्पष्टता देखकर नयी टीका लिखने की प्रेरणा हुई। तद्नुसार उन्होंने षट्खंडागम की बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण धवलाटीका लिखी। पश्चात् आचार्य गुणधरकृत कसाय-पाहुड की चार विभक्तियों की बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखकर स्वर्गवासी हो गये। उनके विद्वान शिष्य जिनसेन द्वितीय ने जयधवला की शेष चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका शक सम्वत् 753 की फागुन शुक्ला दशमी को पूर्ण की। उस समय राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष का राज्य था। इस टीका के पहले का समय वीरसेनाचार्य का होना चाहिये। डॉ. हीरालाल जैन ने अनेक प्रमाणों के आधार पर धवला की समाप्ति का समय शक संवत् 738 सिद्ध किया है। उनके अनुसार जब जयतुंगदेव का राज्य पूर्ण हो चुका था और बोद्दणराय (अमोघवर्ष) राजगद्दी पर आसीन हो चुके थे तब धवला टीका समाप्त हुई थी (धवलाटीका, प्रस्ता. पृ. 40-41)। इस प्रकार वीरसेन स्वामी का समय 9वीं शताब्दी ई. सन् 816 होता है। वीरसेन स्वामी ने कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं लिखा। उन्होंने षट्खंडागम के प्रथम पांच खण्डों पर प्राकृत भाषा में धवला टीका लिखकर छठे खण्ड अर्थात् 'सत्कर्म' की रचना की जिसमें बन्ध आदि अठारह अधिकारों का वर्णन है। इसी प्रकार कषायप्राभृत पर संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषा में टीका लिखी। इन टीकाओं में सिद्धान्त की सूक्ष्म गहराई, तार्किकता, निर्भीकता, प्रमाणिकता

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