Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 15
________________ जैनविद्या 14-15 (iii) सम्यक्त्व का लक्षण/अर्थ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (तत्त्वार्थ सूत्र 1.1)। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्-चारित्र की एकता को मोक्षमार्ग कहा है। इसमें सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मश्रद्धान धर्म का मूल अर्थात् आधार है। इसके अभाव में जीवन में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता। सम्यक्त्व से व्यक्ति को स्वतंत्रता का बोध होता है और वह स्वावलम्बन की ओर बढ़ता है। सम्यक्त्व क्या है? इसकी व्याख्या वीरसेन ने निम्न प्रकार से की - 'प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रकटता जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं।' शंका- इस प्रकार लक्षण मान लेने पर असंयत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान का अभाव हो जायेगा। समाधान - शुद्ध निश्चयनय का स्मरण करने पर यह कहना सत्य है अथवा तत्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त, आगम और पदार्थ को तत्वार्थ कहते हैं, उनके विषय में श्रद्धान/अनुरक्ति करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहां सम्यग्दर्शन लक्ष्य है और आप्त, आगम तथा पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। शंका - पहले कहे हुए सम्यक्त्व के लक्षण के साथ इस लक्षण का विरोध क्यों न माना जाये? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि शुद्ध और अशुद्ध नय की अपेक्षा यह दोनों लक्षण कहे गये हैं। पहला लक्षण शुद्ध नय की अपेक्षा से है और तत्वार्थ-श्रद्धान-रूप लक्षण अशुद्ध नय की अपेक्षा है। दृष्टि-भेद होने के कारण दोनों लक्षणों में कोई विरोध नहीं आता। ___ अथवा 'तत्वरुचिः सम्यक्त्वं' तत्व-रुचि को सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नय की अपेक्षा जानना चाहिये (धवला 1.1.4, पृष्ठ 152)। (iv) मोहनीय कर्म और अनन्तानुबन्धी कषाय की द्वि-स्वभावता मोहनीयकर्म दर्शन मोह और चारित्र मोह रूप दो प्रकार का है जो समीचीन श्रद्धा और चारित्र को घातता है। इसी प्रकार अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण चारित्र की प्रतिबंधक होने के कारण दो स्वभाववाली है। अनन्तानुबंधी कषाय की द्वि-स्वभावता आचार्य वीरसेन ने सासादन-सम्यग्दृष्टि नामक द्वितीय गुणस्थान के अस्तित्व से सिद्ध की है। उनके अनुसार इस गुणस्थान में अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न विपरीताभिनिवेश पाया जाता है जो चारित्र मोहनीय का भेद है, इसलिये द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यादृष्टि है। किन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश वहां नहीं पाया जाता इसलिये उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते, किन्तु सासादन-सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस सामान्य विवेचन के साथ आचार्य वीरसेन ने निम्न शंका-समाधान किया जो मननीय है - __ शंका- पूर्व के कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई है?

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