Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 20
________________ जैनविद्या 14-15 ___13 टीका' का समापन नरेन्द्र चूड़ामणि बोद्दनराय नरेन्द्र के साम्राज्य में जगतुंगदेव द्वारा शासित प्रदेश में विक्रम संवत् 838 में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को किया था। उक्त प्रशस्ति-लेख के आधार पर 'धवला' के विद्वान सम्पादकों (स्व. डॉ. हीरालाल जैन एवं स्व. डॉ. ए.एन. उपाध्ये) तथा 'जयधवला' के विद्वान सम्पादकों (स्व. पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, स्व. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य और स्व. पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) ने किसी भ्रान्तिवश इसे शक संवत् 738 समझकर वीरसेन का समय 816 ई. मान लिया। प्रशस्ति में "अट्ठतीसम्हि सासिय विक्कमरायम्हि एससंगरमो (पाठान्तर वसुसतोरमे)" पंक्ति में विक्रम संवत् का स्पष्ट उल्लेख है। स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने धवला के समय के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत का विवेचन करते हुए और प्रशस्ति में उल्लिखित संवत्, मास, तिथि और तत्समय लग्न और ग्रहों की स्थिति आदि का परीक्षण करते हुए धवला टीका के समापन की तिथि सोमवार 16 अक्टूबर, 780 ईस्वी निश्चित की है। 'धवला' और 'जयधवला' के विद्वान सम्पादकों ने अपनी प्रस्तावनाओं में बोद्दनराय नरेन्द्र को राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम (815-76 ई.) से चीन्हा है, जबकि डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन के मतानुसार वह अमोघवर्ष नहीं, अपितु राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव धारावर्ष (779-793 ई.) था और जगतुंगदेव गोविन्द तृतीय जगतुंग था जो युवराज के रूप में मयूरखण्डी के सेना मुख्यालय का प्रमुख था और अपने पिता के प्रतिनिधि (वाइसराय) के रूप में नासिक देश पर राज्य करता था वीरसेन स्वामी की कषायपाहुड की इस प्राभृत व्याख्या जयधवला का समापन उनके शिष्य जिनसेन अपर नाम जयसेन' ने उसके कलेवर में 40,000 प्रमाणश्लोकों की अभिवृद्धिकर और उसे 60,000 श्लोकों के बृहद्काय ग्रन्थ में परिणत करते हुए श्रीमद् गुर्जरराय द्वारा अनुपालित (शासित)वाटग्रामपुर में राजा अमोघवर्ष के राज्यकाल में शक संवत् 759 (सन् 837 ईस्वी) में फाल्गुन शुक्ल दशमी के पूर्वाह्न में नन्दीश्वर महोत्सव के अवसर पर किया था। प्रशस्ति, श्रुतावतार, पट्टावलियों और अन्य ग्रन्थों से विदित होता है कि वीरसेन स्वामी ने वाटग्रामपुर के चन्द्रप्रभ जिनालय में रहकर अपने ग्रन्थ रचे थे। कई विद्वानों ने वाटग्राम की पहचान या तो महाराष्ट्र में मान्यखेट अथवा गुजरात राज्य स्थित बड़ौदा10 से की है, किन्तु डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने उसे महाराष्ट्र राज्य स्थित नासिक जिले के डिण्डोरी तालुका में बसे वाणी ग्राम से चीन्हा है। तत्कालीन राष्ट्रकूट अभिलेखों में नासिकदेश के वाटनगर विषय का उल्लेख मिलता है और धवला की रचना वीरसेन स्वामी ने जगतुंगदेव के राज्य (शासित प्रदेश) में की थी, जो राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव धारावर्ष के युवराज और वाइसराय के रूप में नासिक देश पर शासन कर रहा था। अतः डॉ. जैन द्वारा वाटग्राम का वाणीग्राम से किया गया समीकरण समीचीन प्रतीत होता है। ___ डॉ. ज्योतिप्रसादजी के मतानुसार पंचस्तूपान्वय2 जैन गुरुओं का एक प्राचीन संघ है जो मूलतः उत्तर भारत में मथुरा अथवा हस्तिनापुर में उद्भूत हुआ था तथा वाराणसी और बंगाल तक फैला हुआ था। इसी संघ की एक शाखा छठी अथवा सातवीं शताब्दी ईस्वी में दक्षिण भारत चली गई लगती है।13 नवीं शताब्दी के बाद से इस अन्वय के गुरुओं ने अपना नाम सेनगण

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