Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 16
________________ जैनविद्या 14-15 ___समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनन्तानुबंधी प्रकृतियों की द्वि-स्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। विशेषार्थ ___.."वह द्विस्वभावता दो प्रकार से हो सकती है। एक तो अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों की प्रतिबन्धक मानी गई है और यही उसकी द्वि-स्वभावता है। " दूसरे अनन्तानुबंधी जिस प्रकार सम्यक्त्व के विधान में मिथ्यात्व प्रकृति का काम करती है उस प्रकार वह मित्यात्व के उत्पाद में मिथ्यात्व प्रकृति का काम नहीं करती। इस प्रकार की द्विस्वभावता को सिद्ध करने के लिए सासादन गुणस्थान को स्वतंत्र माना है। __(धवला, 1.10, पृष्ठ 165-166) उपसंहार जैन दर्शन के कर्म-सिद्धान्त की प्रामाणिक प्ररूपणा के क्षेत्र में आचार्य वीरसेन के अद्भुत योगदान के कारण वे कलिकाल-सर्वज्ञवत् मान्य हुए हैं। उनकी धवला और जयधवला टीकाओंरूप अगाध ज्ञान-सागर में अनन्त ज्ञानरत्न, माणिक्य और मोती भरे हैं जो निर्मल ज्ञान के ज्ञेय होने के साथ ही वीतराग मार्ग का सम्यक् निरूपण करते हैं। जो भव्य जीव नय-भेद के आग्रह को त्यागकर उसमें डुबकी लगाते हैं उन्हें निश्चित ही ज्ञान-स्वभावी आत्मा के अमूल्य-अनुपम रत्न की प्राप्ति होती है और वे पर्याय-दृष्टि त्यागकर स्व-समय-रूप प्रवर्तते हैं। किन्तु जो नयपक्ष के आग्रही होते हैं वे रत्नों के स्थान पर विविध मनोभावों के आत्म-पीड़क कंकण ही पाते हैं। कहा भी है - 'जितने वचन मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय होते हैं (धवला, 1.1.9, गाथार्थ 105, पृष्ठ 169)।' भव्यजन वीरसेन स्वामी वर्णित वीतराग-पथ के अनुगामी बनकर जीवन का रूपांतरण/उन्नयन करें, यही कामना है। कार्मिक अधिकारी जी-5 ओरियन्ट पेपर मिल्स अमलाई (म.प्र.) - 484117

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