Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 14
________________ CH यगा - - - महामहोपाध्यायश्रीयशोविजयगलती ॥ जैन तर्क भाषा ॥ ( हिन्दी-अनुवाद-सहिता) १. प्रमाणपरिच्छेदः। ऐन्द्रवृन्दनतं नत्वा जिनं तत्त्वार्थदेशिनम् । प्रमाणनयनिक्षेपैस्तर्कभाषां तनोम्यहम् ।। (प्रमाणसामान्यस्य लक्षणनिरूपणम् । ) १ तत्र-स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्-स्वम् आत्मा ज्ञानस्यैव स्वरूपमित्यर्थः, परः तस्मादन्योऽर्थ इति यावत्, तौ व्यवस्यति यथास्थितत्वेन निश्चिनोतीत्येवंशीलं स्वपरव्यवसायि । २ अत्र दर्शनेऽतिव्याप्तिवारणाय ज्ञानपदम् । संशयविपर्ययानध्यवसायेषु तद्वारणाय व्यवसायिपदम् । परोक्षबुद्धयादिवादिनां मीमांसकादीनाम्, बाह्यापलापिनां ज्ञानाद्यद्वैतवादिनां च मतनिरासाय स्वपरेति स्वरूपविशेषणार्थमुक्तम् । ॥ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ मंगलाचरण-इन्द्रोंके समूह द्वारा जिन्हें नमस्कार किया गया है और जो तत्त्वार्थका उपदेश करनेवाले हैं, उन जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार करके प्रमाण, नय और निक्षेपका वर्णन करनेवाले 'तकंभाषा' नामक ग्रन्थको मैं रचना करता हूँ । प्रमाणका स्वरूप १ 'स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात् स्व और परको निश्चयात्मक रूपसे जाननेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है । यहाँ 'स्व' का अर्थ है आत्मा अर्थात् ज्ञानका ही स्वरूप और 'पर' का अर्थ है ज्ञानसे भिन्न पदार्थ । तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान अपने स्वरूपको और दूसरे घटपट आदि पदार्थोंको सम्यक् प्रकारसे-निश्चित रूपसे जानता है, वही प्रमाण कहलाता है। २ प्रमाणके लक्षणमें 'ज्ञान' पदका समावेश इसलिए किया गया है कि दर्शन में अतिव्याप्ति

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