Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 22
________________ प्रमाणपरिच्छेदः सर्गलक्षणं दृश्यत एवेति चेत् तत् तीवाध्यवसायकृतम्, न तु कामिनीनिधुवनक्रियाकृतमिति को दोषः ? ननु स्त्याधिनिद्रोदये गीतादिकं शृण्वतो व्यञ्जनावग्रहो मनसोऽपि भवतीति चेत्, न; तदा स्वप्नाभिमानिनोऽपि श्रवणाद्यवग्रहेणैवोपपत्तेः। ननु 'च्यवमानो न जानाति' इत्यादिवचनात् सर्वस्यापि छद्मस्थोपयोगस्यासङ्खयेयसमयमानत्वात्, प्रतिसमयं च मनोद्रव्याणां ग्रहणात् विषयमसम्प्राप्तस्यापि मनसो देहादनिर्गतस्य तस्य च स्वसन्निहितहृदयादिचिन्तनवेलायां कथं व्यञ्जनावग्रहो न भवतीति चेत्, शृणु; ग्रहणं हि मनः, न तु ग्राह्यम् । ग्राह्यवस्तुग्रहणे च व्यञ्जनावग्रहो भवतीति न मनोद्रव्यग्रहणे तदवकाशः; सन्निहितहृदयादिदेशग्रहवेलायामपि नैतदवकाशः; बाह्यार्थापेक्षयव प्राप्यकारित्वाप्राप्यकारित्वव्यवस्थानात्, क्षयोपशमपाटवेन मनसः प्रथममर्थानुपलब्धिकालासम्भवाद्वा; श्रोत्रादीन्द्रियव्यापारकाले समाधान-स्त्रीसंभोग-संबंधी तीव्र अध्यवसायके कारण ही वीर्यपातरूप क्रिया-फल होता, है, स्त्रीप्रसंगकी क्रियासे नहीं। शंका-स्त्यानधि निद्राका उदय होनेपर गीत आदि सुननेवालेको मनसे भी व्यंजनावग्रह होता है। समाधान-यह समझना ठीक नहीं है। क्योंकि स्त्यानधि निद्राके समय गीत आदि सुनने वालेको श्रोत्र आदि इन्द्रियोंसे ही अवग्रह होता है; भले ही वह उसे स्वप्न मानता है; किन्तु मनसे उसे व्यंजनावग्रह नहीं होता। शंका-'च्यवमानो न जानाति' इस आगमवाक्यसे छद्मस्थ जीवका उपयोग असंख्यात समयपरिमाण वाला सिद्ध है और उनमेंसे प्रत्येक समयमें मनोद्रव्योंका ग्रहण होता है; ( वह द्रव्य तथा उनका ग्रहण संबंध ही व्यंजन है) अतः मनसे भी व्यंजन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त मन भले ही विषयको स्पर्श न करे और देहसे बाहर न निकले, फिर भी अपने साथ संबद्ध हृदय आदिका चिन्तन करते समय व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होगा ? ___समाधान-सुनो! मन ग्रहण है अर्थात् ग्राहय वस्तुको ग्रहण करने में करण है, वह स्वयं ग्राहय नहीं है । व्यंजनावग्रह तो ग्राह्य वस्तुको ग्रहण करने पर होता है । अर्थात् जिन मनोद्रव्योंके ग्रहणसे व्यंजनावग्रह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है, वे मनोद्रव्य ग्राह्य न होनेसे उनके ग्रहण के कारण व्यंजनावग्रह सिद्ध नहीं होता। अपने साथ सम्बद्ध हृदय आदि प्रदेशोंका ग्रहण करते समय भी व्यंजनावग्रहके लिए अवकाश नहीं; क्योंकि बाह्य पदार्थोंकी अपेक्षा ही प्राप्यकारिता या अप्राप्यकारिताकी व्यवस्था होती है । श्रोत्र आदि इन्द्रियोंका क्षमोपशम पटु नहीं होता, अतएव पहलेपहल वे अर्थकी उपलब्धि नहीं कर पातीं, परन्तु मनका क्षयोपशम पटु होने के कारण पहले अर्थकी अनुपलब्धिका काल संभव नहीं है। वह प्रथम समयमें ही

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