Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 95
________________ (४) पृष्ठ ४, पं. ५ यतो व्युत्पत्ति-शब्दों की व्युत्पत्ति दो प्रकार की होती है। कुछ व्युत्पत्तियाँ सार्थक हैं। जैसे पाठक, अध्यापक, शासक, नेता आदि शब्दों की व्युत्पत्तियाँ । जो पढ़ाता या पाठ करता है उसे पाठक कहा जाता है । इस व्युत्पत्ति के आधार पर हम व्यक्तिविशेष को पाठक कह सकते हैं। ऐसी व्युत्पत्तियों को 'प्रवृत्तिनिमित्त' कहा जाता है । इसके विपरीत कुछ व्युत्पत्तियां केवल शब्द के निर्माण के लिए होती हैं। उनके आधार पर प्रत्येक वस्तु को उस नाम से नहीं पुकारा जा सकता। उदाहरण के रूप में गो शब्द है। इसकी व्युत्पत्ति है-'गच्छतीति गौः', किंतु चलनेवाली प्रत्येक वस्तु को गौ नहीं कहा जा सकता। ऐसे शब्दों की व्याख्या को 'व्युत्पत्तिनिमित्त' कहा जाता है। यहाँ प्रत्यक्ष शब्द की व्याख्या 'अक्ष' शब्द को लेकर की गई है। इसका अर्थ है-इंद्रियाँ । किंतु प्रत्यक्ष में इंद्रियातीत ज्ञान भी सम्मिलित है, अतः अक्ष शब्द केवल व्युत्प, त्तिनिमित्त है । वास्तव में देखा जाय तो प्राचीन आगम-साहित्य में प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। उस समय साधारण व्यवहार में आँखों देखी बात के लिए प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया जाता था । दार्शनिक क्षेत्र में इसका प्रयोग सर्वप्रथम न्यायदर्शन में हुआ। वहाँ इसकी व्याख्या इंद्रियजन्य ज्ञान के रूप में की जाती है। इस व्याख्या में अक्ष शब्द से सभी इद्रियाँ ग्रहण करली गई। उत्तरवर्ती काल में आत्मा को भी अक्ष शब्द का अर्थ मान लिया गया और इंद्रियातीत ज्ञान को प्रत्यक्ष में सम्मिलित कर लिया गया। पृष्ठ ४, पं. ८ सांव्यवहारिक-बौद्धों की योगाचार परंपरा ज्ञानाद्वैत को मानती है। उसने ज्ञान की दो भूमिकाएँ स्वीकार की हैं-आलय-विज्ञान और प्रवृत्ति-विज्ञान । आलयविज्ञान समुद्र के समान है और प्रवृतिविज्ञान उसमें उठने वाली तरंगों के समान । तरंगों का अस्तित्व समुद्र के अस्तित्व से पृथक् नहीं होता। दूसरे शब्दों में यों कहा जायगा कि वह समुद्र की ही क्षणिक-प्रतीति है। इसी आधार पर वहाँ सत्य के दो स्तर बताए गए हैं । संवृति सत्य और परमार्थसत्य । घट-पट आदि बाह्य वस्तुओं में प्रतीत होने वाला सत्य संवृति सत्य है । और आलयविज्ञान परमार्थसत्य । संवृति का अर्थ है संवरण या स्वीकृति । घट-पट आदि वस्तुओं का ज्ञान वास्तव में सत्य न होने पर भी काम चलाने के लिए सत्य मान लिया जाता है । संवृति के दो भेद हैं-मिथ्या-संवृति और सत्यसंवृति । शुक्ति में रजत, रज्जु में सर्प आदि जो प्रतीतियाँ साधारण व्यवहार में भी मिथ्या समझी जाती हैं उन्हें मिथ्या संवृति कहा जाता है। स्वप्न भी इसी के अंतर्गत हैं । घट-पट आदि बाह्य वस्तुओं का जो ज्ञान साधारण व्यवहार में मिथ्या नहीं समझा जाती उसे सत्यसंवृति कहा गया है। योगाचार केवल 'ज्ञान' का अस्तित्व मानता है, ज्ञेय का नहीं। अतः वहाँ यह विभाजन ज्ञान या प्रतीति को लेकर किया गया। शंकराचार्य ने यह विभाजन त्रिविध सत्ता के रूप में किया है। रज्जु-सर्प आदि मिथ्या ज्ञानों में प्रतीत होने वाले पदार्थ प्रातिभासिक सत्य हैं । घट-पट आदि साधारण व्यवहार में प्रतीत होने वाले व्यावहारिक सत्य, और ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है। जैनदर्शन बाह्यजगत् को मिथ्या नहीं मानता, फिर भी उसने इंद्रिय तथा मन के द्वारा होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है और केवल आत्मा से होने वाले ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यशोविजय ने इस वर्गीकरण के कारण इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के द्वारा पारमार्थिक न होने पर लौकिक-व्यवहार का संचालन होता है। हम इंद्रिय तथा मन के द्वारा जानकर कहीं प्रवृत्त होते हैं और कहीं निवृत्त । इस व्यवहार में कहीं बाधा नहीं पड़ती। इस प्रकार समीचन व्यवहार का कारण होने से इसे सांव्यबहारिक कहा जाता है । अनुमान को इसीलिए परोक्ष कहा जाता है, क्योंकि वहाँ वस्तु को साक्षात् प्रतीति नहीं होती। हम धुएँ के द्वारा अग्नि का अनुमान करते हैं। इसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में आत्मा वस्तु को मन और इद्रियों के द्वारा जानता है, साक्षात् नहीं । अतः वास्तव में वह परोक्ष ही है, केवल व्यवहार में प्रत्यक्ष कहा जाता है।

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