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अनुमान और आगम । अनुमान को चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शनों ने प्रमाण माना है। बौद्ध तथा वैशेषिक दर्शनों ने तीन भेदों को प्रमाण नहीं माना । सांख्य दर्शन आगम को भी प्रमाण मानता है। न्यायदर्शन प्रस्तुत तीन के अतिरिक्त उपमान को भी जो प्रत्यभिज्ञान का ही रूपांतर है। प्रभाकर ने इन चार के अतिरिक्त अर्थापत्ति नामक स्वतंत्र प्रमाण माना है वास्तव में देखा जाय तो यह अनुमान का ही एक प्रकार है। वेदांत और भट्ट मीमांसको ने अभावनामक छठा प्रमाण माना है। अन्य दर्शन इसे भी अनुमान में सम्मिलित करते हैं। जैनदर्शन ने स्मरण और तर्क को भी प्रयाण माना है। जिसे अन्य दर्शनों ने स्वीकार नहीं किया। उनका कथन है कि प्रमाण का कार्य है-अज्ञात वस्तु का ज्ञान कराना । स्मरण में जिस वस्तु का भान होता है, वह अज्ञात नहीं होती। पूर्वगृहीत होने के कारण उसके ज्ञान को प्रमाण नहीं कहा जा सकता । उत्तर में जैनदर्शन का कथन है कि वस्तु ज्ञात हो या अज्ञात यदि प्रतीतिसत्य है तो उसे प्रमाण मानना चाहिए। अज्ञातता को प्रामाण्य का नियामक तक्व नहीं मानना चाहिए। तक का अर्थ है-व्याप्ति का ज्ञान । जहाँ-जहाँ धूआँ है, वहाँ अग्नि होती है । अग्नि व्यापक है और घूम व्याप्य । इसी ज्ञान को तर्क कहा जाता है। न्यायदर्शन इसका प्रतिपादन दूसरे रूप में करता है। उसका कथन है कि व्याप्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है हम अनेक स्थानों पर घूम और अग्नि को एक साथ देख कर इस परिणाम पर पहुंचते हैं। फिर भी मन में संदेह रह जाता है कि संभव है कहीं धूम हो और अग्नि न हो, इस संदेह का निराकरण तर्क करता है। उसका कथन है कि धूम अग्नि का कार्य है। जहाँ कार्य होता है, कारण अवश्य होता है। कार्य-कारण भाव के इस शाश्वत सिद्धांत के आधार पर घूम को व्याप्य और अग्नि को व्यापक माना जाता है। साथ ही यह भी तर्कशास्त्र का नियम है कि जहाँ व्याप्त होता हैं, व्यापक अवश्य रहता है । न्यायदर्शन इस तर्क को नीचे लिखे शब्दों में अपस्थित करता है
'यदि धूमो वहिनव्याप्यो न स्यात् बहिनजन्यो न स्यात् ।' अर्थात् धूम यदि अग्नि का व्याप्य नहीं है तो कार्य भी नहीं हो सकता । उसका कार्य होना व्याप्य होने को सिद्ध करता है । जैनेतरदर्शनों का कथन है कि तर्क के द्वारा कोई नूतन ज्ञान नहीं होता, अतः उसे प्रमाणकोटि में नहीं रखा जा सकता। फिर भी सभी ने उसे अनुमान का जीवनदाता माना है। इसी प्रकार स्मृति, उपमान तथा अनुमान दोनों को जीवनप्रदान करती है। जैनदर्शन अप्रमाणे का अर्थ मिथ्याज्ञान करता है। और इसी आधार पर स्मृति तथा तर्क को अप्रमाण कोटि में नहीं रखता। जैनेतरदर्शन इन दोनों को मिथ्याज्ञान न होने पर भी अज्ञातवस्तु के ज्ञापक न होने के कारण प्रमाण नहीं मानते।
स्मृति को प्रमाणसिद्ध करते समय यशोविजय ने पूर्वपक्ष के रूप में दो तर्क उपस्थित किए हैं। प्रथम तर्फ यह है कि स्मृति में 'स देवदत्तः' इस प्रकार का भान होता है। इसमें देवदत्त विशेष्य है और स विशेषण। जोकि देवदत्त की परोझता और अतीतता की सूचित करता है। परोक्षता के संबंध में कोई विवाद नहीं है, किंतु यह आवश्यक नहीं है कि स्मृति के समय देवदत्त अतीत हो चुका हो। उस समय भी वह वर्तमान हो सकता है । ऐसी स्थिति में अतीतत्व की प्रतीति सम्यक् नहीं कही जा सकती। यशोविजय का कथन है कि यह विशेषण सर्वत्र विशेष्य की अतीतता का बोधक नहीं है। यहाँ अतीतता का संबंध विषय के साथ न होकर उस प्रतीति के साथ है जो पहले हो चुकी है। यदि तत् का अर्थ केवल परोक्ष किया जाए तब भी यह आपत्ति नहीं रहती। पूर्व पक्ष की दूसरी युक्ति यह है कि स्मृति का प्रामाण्य प्रत्यक्ष के प्रामाण्य पर निर्भर है। यदि प्रत्यक्ष अभ्रात है तो उसकी स्मृति भी अभ्रांत कही जायगी। इसके विपरीत यदि वह मिथ्या है तो स्मृति भी मिथ्या होगी। इस प्रकार स्मृति का प्रामाण्य स्वतंत्र नहीं है । अतः उसे प्रमाण नहीं मानना चाहिए। उत्तर में यशोविजय का कथन है कि अनुमान का प्रामाण्य भी व्याप्तिज्ञान के प्रामाण्य पर निर्भर होता है, फिर भी उसे प्रमाण माना जाता है । अतः प्रामाण्य का आधार स्वातंत्र्य न होकर ज्ञान की यथा-- र्थता, है और इस आधार पर स्मृति को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता।