Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 101
________________ पृष्ठ १५, पं. २ स एव दृढ--यशोविजय ने धारणा को तीन अवस्थाओं में विभक्त किया है-अविच्यति, वासना भार स्मृति । अविच्युति का अर्थ है-अनुभूति का स्थायी होना । वासना का अर्थ है उसका संस्कार के रूप में परिणत होना । जब वह संस्कार पुनः उद्बुद्ध हो जाता है तो उसे 'स्मृति' कहा जाता है । वर्तमान मनोविज्ञान का कथन है कि हमारे मन पर पड़ने वाला कोई प्रभाव समाप्त नहीं होता। जब तक वह चेतन मन में रहता है, उसका भान होता रहता है। अचेतन मन में जाकर वही संस्कार के रूप में पड़ा रहता है और अवसर आने पर पुनः उबुद्ध हो जाता है। इन्हीं अवस्थाओं को यहाँ क्रमशः 'वासना' तथा 'स्मृति' कहा गया है। यहां एक प्रश्न होता है कि जैन दृष्टि से वे संस्कार कहाँ रहते हैं ? इसके उत्तर में जैनदर्शन मन तथा समस्त इंद्रियों को द्रव्य तथा भाव के रूप में विभक्त करता है। द्रव्येन्द्रिय तथा द्रव्यमन जड हैं । भावें. द्रिय तथा भावमन आत्मस्वरूप हैं। समस्त संस्कार आत्मा में रहते हैं। उन्हीं को कार्मण शरीर कहा जाता है। यह संस्कार, आन आप में जड होने पर भी आत्मा को प्रभावित करते रहते हैं। वर्तमान मनोविज्ञान में जो स्थान अचेतन मन का है, वही जैनदर्शन में कर्मयुक्त आत्मा का। पृष्ठ १५, पं. ६ केचित्तु अपनयन-किसी-किसी आचार्य ने अपाय और धारणा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि अपाय निषेधात्मक होता है और धारणा विध्यात्मक । ईहा में विशेष रूप से जानने की इच्छा होतो है। उसके पश्चात् ज्ञाता वस्तु का विवेचन करता है। सर्वप्रथम इतर वस्तु का अपलाप करता है। उदाहरण के रूप में जब सामने खडे व्यक्ति को हाथ-पैर आदि हिलाते देखता है तो इस निश्चय पर पहुँचता है कि वह 'स्थाणु' नहीं हो सकता। इसी आनयन का नाम 'आय' है। उसके पश्चात् विध्यात्मक निश्चय करता है कि वह मनुष्य ही है यह 'धारणा' है। यह निश्चय पर पहुँचने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। मर्वप्रथम सामान्य ज्ञान होता है । उसके पश्चात् विशेप को जिन्नासा होती है । तत्पश्चात् व्यावर्तक धर्मों के आधार पर पक्षांतर का आलाप किया जाता है और उसके पश्चात् विध्यात्मक निर्णय पर पहुंचते हैं। इन्हीं को जैनदर्शन में क्रमशः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यशोविजय का कथन है कि आय सर्वत्र निषेधात्मक नहीं होता। वह कहीं विधिरूप होता है और कहीं निषेधरूप और कहीं उभयरूप । हाय-पैर आदि अंगों का संचालन जिस प्रकार स्थाणु व का व्यावर्तक है उसी प्रकार मनुष्यत्व का प्रतिपादक भी हो सकता है। यह ज्ञाता पर निर्भर है । कि उसे किस प्रकार की प्रतीति होती है। ऐसी स्थिति में विधि अथवा निषेध दोनों को आय कहा जायगा । वास्तव में देखा जाय तो यहाँ दो शब्द मिलते हैं : अपाय और अवाय । अपाय का शाब्दिक अर्थ निषेधात्मक है। जैसे अपनयन, अपसरण, अपगम इत्यादि । किंतु अव-उपसर्ग निषेधात्मक नहीं है। वह केवल निश्चय तथा मर्यादा को प्रकट करता है जैसे अवगम, अवस्थिा इत्यादि । अवाय में ज्ञान निश्चयात्मक और मर्यादित हो जाता है। और उसमें विधि तथा निषेध दोनों तत्त्व रहो हैं। पृष्ठ १६, पं १ अन्यथा स्मृते-अवाय को निवेधात्मक तथा धारमा को विश्वात्मक मान लेने पर एक आपत्ति खडी होती है। ऐसी स्थिति में अविच्युति, वासना और स्मृति के रूप में धारणा की जो व्याख्या की गई है, उसे अतिरिक्त कोटि में रखना होगा । फलस्वरूप मतिज्ञान के पांच भेद हो जाएंगे। वास्तव में देखा जाय तो अविच्युति और वासना को ज्ञान के भेदों में नहीं रखा जा सकता । वे केवल स्मृति के सहायक हैं, उपयोग-रूम नहीं हैं । स्मृति अपने आप में एक नया ज्ञान है। पूर्वानुभव उपमें सहायक होता है, किंतु वह उसकी अवस्था-विशेष नहीं है । प्रत्येक ज्ञान आना कार्य पूरा करके शांत हो जाता है। नये ज्ञान में, चाहे वह पूर्वानुभूत वस्तु का ही हो, पुनः नये अवग्रह आदि होते हैं। स्मृति मानस-ज्ञान है । उसमें भी चारों अवस्थाएँ स्वतंत्र रूप से होती हैं। ऐसी स्थिति में यदि निषेध और विधि दोनों को अवाय मार

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