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ल्पक अनुभूति को प्रत्यक्ष और उत्तरवर्ती सविकल्पक अनुभूतियों को अनुमान मानता है। जैनदर्शन इस विषय में प्रारंभ को लेकर चलना है। जिस अनुभूति का प्रारंभ इंद्रिय ज्ञान से होता है उसे प्रत्यक्ष कहता है और जिसका प्रारंभ मन से, उसे परोक्ष । प्रस्तुत दोनों प्रकारों में मन का विषय के साथ संपर्क नहीं होता। ततीय प्रकार सुख-दुख आदि की अनुभूतियों का है। इनमें इंद्रियों का व्यापार नहीं होता। फिर भी उन्हें प्रत्यक्षात्मक माना जाता है। इनमें भी मन का विषय के साथ संपर्क नहीं होता। शीत-उष्ण, मधुर-कद, मूगंध-दर्मच आदि का ग्रहण इंद्रियाँ करती हैं। और मन उनका प्राचीन संस्कारों के अनुसार वर्गीकरण करता है। किसी को अनुकल कोटि में रखता है और किसी को प्रतिकूल कोटि में । इंद्रियों द्वारा होनेवाली अनुभूति वस्तुलक्ष्यी होती है, किंतु मानसिक अनुभूति आत्मलक्ष्यी होती है। रसनेंद्रियद्वारा मिर्च-मसालों की अनुभूति बालक और वयस्क को एक-सी होती है, किंतु मानसिक अनुभूति में अंतर आ जाता है। वयस्क उन्हें स्वादिष्ट मानता है और बालक बेस्वाद । इससे ज्ञात होता है कि मन का वस्तु के साथ संपर्क नहीं होता। वह केवल प्राचीन संस्कारों के अनुसार बर्गीकरण करता है । मानसिक अनुभूतियों का दूसरा प्रकार स्मृत्यात्मक है। अनुकूल घटना अथवा प्रिय वस्तु की स्मृति सृख देती है और प्रतिकूल की दुःख । अनुकूलता और प्रतिकूलता का आधार राग-द्वेष, मोह आदि सस्कार होते हैं। सुख या दुःख स्वतंत्र वस्तु नहीं है, किंतु अनुकल तथा प्रतिकूल अनुभूतियों का नाम ही क्रमशः सुख या दुख है। अतः मन को प्राप्यकारी कहना ठीक नहीं है। न्यायदर्शन इसके लिए अनेक प्रकार के संनिकर्षों की कल्पना करता है। तात्विक दृष्टि से उनका विशेष महत्त्व नहीं है।
पृष्ठ ९, पं. ७ इतिचेत् श्रृणु - वर्तमान मनोविज्ञान ने मन के तीन कार्य माने हैं-ज्ञान, संवेदन और इच्छा। संवेदन का अर्थ है सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल आदि की अनुभूति । मन जब संवेदन तथा इच्छारूप कार्य करता है, उस समय उन बातों से प्रभावित भी होता है । विविध इच्छाएँ मनपर विविध प्रभाव डालती हैं। किसी इच्छा एवं संवेदन से मन प्रसन्न होता है और किसी से मप्रसन्न । किंतु ज्ञान अनुकूल वस्तु का हो या प्रतिकूल का उससे इस प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता। यशोविजय ने भी मन का यह वर्गीकरण किया है । ज्ञान की अवस्था में घस्तद्वारा प्रभावित न होने के कारण मन अप्राप्यकारी है। अन्य अनुभूतियों में ज्ञान के साथ रागद्वेष आदिका - सम्मिश्रण हो जाता है। उन्हीं के फलस्वरूप अनुकूलता या प्रतिकूलता का भान होता है।
पृष्ठ ९, पं. ९ क्षयोपशमट पाटवेन-मानसिक ज्ञान में व्यंजनावग्रह के अभाव का समर्थन करते हुए यशोविजय ने एक अनुमान दिया है। उनका कथन है कि मन प्रथमक्षण में ही वस्तु को ग्रहण कर लेता है। उसकी ज्ञातशून्य अवस्था नहीं होती। इसके विपरीत स्पर्शन आदि इंद्रियाँ ज्ञानशून्य अवस्था में भी रहती हैं। हमारा हाथ किसी वस्तु को छूता है, किंतु यदि मन दूसरी ओर लगा है तो उस की अनुभूति नहीं होती। इसी ज्ञानशून्य अवस्था का नाम 'व्यंजनावग्रह' है । यह अवस्था केवल चार इंद्रियों में होती है। एक बात और है-स्पर्शन आदि इंद्रियाँ सर्वप्रथम वस्तु के साथ संपर्क स्थापित करती हैं और उसके पश्चात् जानने का कार्य प्रारंभ होता है। इसके विपरीत मन की क्रिया जानने से ही प्रारंभ होती है। उसे संपर्क स्थापित करने की आवश्यकता नहीं होती।
पृष्ठ १०, प. ५ स्वरूप-अर्थावग्रह की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि वहाँ केवल वस्तु का भान होता है । नाम, जाति, गुण आदि की प्रतीति नहीं होती। बौद्धदर्शन में इसी को प्रत्यक्ष कहा गया है । वहाँ उसकी व्याख्या है-'कल्पनापोढमभ्रांतं प्रत्यक्षम्' (धर्मकीर्ति, न्यायबिंदु)। बौद्धों का कथन है कि उत्तरवर्ती कल्पनाएँ मन का काम हैं। वे बातें वस्तु में नहीं रहतीं । इसके विपरीत जैनदर्शन का कथन है कि वे सभी वस्तु में रहती हैं, किंतु उनकी अभिव्यक्ति क्रमशः होती है। न्यायदर्शन सन्निकर्ष के