Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 97
________________ वास्तव में देखा जाय तो भुत ज्ञान का लक्ष्य महापुरुषों के अनुभवों को प्रश्रय देना है। वैदिक परपरा में जो स्थान श्रुति का है वही यहाँ श्रुत का है। वहाँ श्रुति को चार वेदों में विभक्त किया जाता है और यहां श्रुत को अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य आदि के रूप में । बहुत सी परंपराएँ श्रुत अर्थात् आगम को प्रमाण नहीं मानतीं। उनका कथन है कि हमें अपनी ही अनुभूति पर निर्भर रहना चाहिए किंतु वास्तव में देखा जाय तो हमारे ज्ञान का अधिकांश दूसरों की अनुभूति पर निर्भर होता है। हम रेल्वे की समयसारिणी देख कर स्टेशन पर चले जाते हैं और गाडी पकड लेते हैं। बहुत-सी बातें समाचार-पत्र एवं आकाशवाणी से जानते हैं । यदि उन सब पर विश्वास छोड दिया जाय तो जीना कठिन हो जायगा । अतः आगम या श्रुत का जीवन में 'महत्त्वपूर्ण स्थान है, किंतु उसके प्रामाण्य का निश्चय कर लेना चाहिए। शास्त्र के प्रामाण्य को लेकर तीन मान्यताएँ हैं। प्रथम मान्यता मीमांसा-दर्शन की है। उसका कथन है कि वाणी में दोष वक्ता के कारण आता है । जिस वाणी का कोई वक्ता ही नहीं है उसमें दोष नहीं हो सकता । वेद अनादि हैं। उनका कोई वक्ता नहीं है, अत: वे निर्दोष और अंतिम प्रमाण हैं। दूसरी मान्यता वेदांत एवं अन्य वैदिक-दर्शनों की है। वे वेद को ईश्वर की रचना मानते हैं। उनका कथन है कि वाणी में तभी दोष आता है, जब वक्ता अल्पज या रागद्वेष से अभिभूत हो, ईश्वर सर्वज्ञ और रागद्वेष से परे है। अत: उसकी वाणी में दोष नहीं उठ सकता । तीसरी मान्यता जैनदर्शन की है। वह भी उपर्युक्त दोनों गुणों को आवश्यक मानता है, कितु ईश्वर के स्थान पर उन महापुरुषों को रखता है जो साधना द्वारा समस्त दोषों से मुक्त हो चुके हैं और मर्वज्ञत्त्व प्राप्त कर चुके हैं। शास्त्र उन्हीं की वाणी हैं। जो आगम सर्वज्ञ की वाणी नहीं हैं, उन्हें भी इसी आधार पर प्रमाण माना जाता है कि वे सर्वज्ञ की वाणी का अनुसरण करते हैं। साथ ही उनके रचयिता महाज्ञानी तथा चरित्रसंपन्न हैं । इन्हीं दो तथ्यों के आधार पर प्रत्येक रचना में प्रामाण्य का तारतम्य आ जाता है। पृष्ठ ६, पं. २-५ अंगोपांगादौ-जब हम किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो दो प्रकार की अनुभूतियां एक साथ चलती हैं। प्रथम अनुभूति अक्षरों के प्रत्यक्ष तथा शब्दरचना की होती है। इस में अर्थ का अनमंधान नहीं होता। द्वितीय अनुभूति अर्थानुसंधान के पश्चात् शब्दों द्वारा प्रतिपादित विषय की होती है। प्रथम अनुभूति मतिज्ञान के अंतर्गत है और द्वितीय श्रुतमान में । प्रथम का आधार चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है और द्वितीय का अर्थानुसंधान या मनन । पृष्ठ ६ पं. ११ अथ अज्ञानम्-यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि व्यंजनावग्रह को ज्ञान की कोटि में नहीं रखा जा सकता। बहरे के कान में शब्द का प्रवेश होता है, किंतु वह उसे नहीं पकड पाता । फलस्वरूप इस संपर्क को ज्ञान नहीं कहा जाता । इसी प्रकार व्यंजनावग्रह को अर्थशून्य होने के कारण ज्ञान नहीं कहना चाहिए। उत्तर के रूप में प्रकार का कथन है कि वास्तव में वह ज्ञानस्वरूप न होने पर भी ज्ञान कारण होने से उसे ज्ञान कहा जा सकता है। पृष्ठ ७, पं. ४ व्यंजनावग्रह-व्यंजनशब्द की व्युत्पत्ति है-'व्यज्यते अनेनेति व्यञ्जनम्' अर्थात् अभिव्यक्ति का साधन । यहाँ इसके दो अर्य किए जाते हैं। प्रयम अर्थ है-इंद्रियाँ, जो पदार्थ को प्रकट करती हैं। द्वितीय अर्थ है-रूप, रस आदि गुण, जिनके द्वारा वस्तु पहिचानी जाती है । व्यंजनावग्रह की व्युत्पत्ति है-'व्यंजनेन व्यंजनस्यावग्रह' सर्वप्रथम इंद्रियों में रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि की अनुभूति होती है। उसके पश्चात उस अनुभूति के आधार पर अर्थ का संनिवेश किया जाता है। इसी प्रथम अनुभूति को 'व्यंजनावग्रह कहा जाता है । तुलनात्मक ज्ञान के लिए व्यंजन शब्द के अर्थ को समझाना आवश्यक है। व्याकरणशास्त्र में अक्षरों का विभाजन स्वर और व्यंजनों के रूप में किया जाता है। स्वर का अर्थ है केवल ध्वनि, जो बिना आघात के बाहर निकलती है। वही स्थानविषेश से टकराकर व्यंजनों का रूप ले लेती है । दूसरे शब्दों में यों कहा

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