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जायगा की ध्वनि व्यंजन के रुप में आकार ग्रहण करती है। इसी प्रकार जब निराकार प्रतीति आकार लेने लगती है तो उसे व्यंजनावग्रह कहा जाता है।
भोजन में रोटी, चावल आदि वस्तुएँ क्षुधा-निवृत्ति का मुख्य तत्त्व होती हैं। शाक, दही आदि पदार्थ उन्हें स्वादिष्ट बनाते हैं। इन्हीं को व्यंजन कहा जाता है। एक ही खाद्य वस्तु विभिन्न व्यंजनों का संपर्क प्राप्त करके भिन्न-भिन्न स्वाद देने लगती है। इस प्रकार भोजन का सामान्य तत्त्व विशेष रूप ले लेता है। व्यंजनावग्रह में भी सामान्य या निराकार प्रतीति साकार बनने लगती है।
पृष्ठ ७, पं. ५ सच........."चतुर्धा-यहाँ इंद्रिय-प्राप्यकारित्व के संबंध में कुछ जान लेना आवश्यक है। वैदिक दर्शनों की मान्यता है कि प्रत्येक इंद्रिय विषय के साथ संबद्ध होकर उसे ग्रहण करती है। श्रोत्रंद्रिय में शब्द की तरंगें प्रविष्ट होती हैं, चक्षरिन्द्रिय रश्मियों के द्वारा विषय के साथ संपर्क स्थापित करती है और घ्राणेंद्रिय में सुगंधित परमाणु प्रविष्ट होते हैं । रसना और स्पर्शनेंद्रिय में यह संपर्क निविवाद है। जैनदर्शन का कथन है कि चक्ष को इस संपर्क की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार मन भी संपर्क स्थापित नहीं करता । फलस्वरूप इन दोनों में 'व्यंजनावग्रह नहीं होता। वहाँ प्रतीति का प्रारंभ अर्थ की अनुभूति से होता है। न्यायदर्शन का कथन है कि द्रव्य का प्रत्यक्ष केवल मन या चक्षु के द्वारा होता है। शेष इंद्रियाँ केवल गुणों को ग्रहण करती हैं, द्रव्य को नहीं । जनदर्शन का भी कथन है कि चक्षु और मन के द्वारा सर्वप्रथम 'अर्थावग्रह होता है। उन्हें व्यंजनावग्रह से अवग्रह पर जाने की आवश्यकता नहीं होती। इसके विपरीत
अन्य इंद्रियाँ पहले व्यंजनावग्रह के रूप में गुणविशेष को ग्रहण करती हैं और उसके पश्चात् अर्थ पर 'पहुंचती हैं ।
--- पृष्ठ ७, पं. ५ स च नयन-मन और चक्षु को अप्राप्यकारी सिद्ध करने के लिए जैनदर्शन नीचे लिखी न्युक्ति प्रस्तुत करता है
अन्य इंद्रियाँ जब वस्तु का ग्रहण करती हैं तो उन पर वस्तु के गुणों का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पडता है। अग्नि या तपी वस्तु का स्पर्श उष्णता के साथ शरीर पर छाले उत्पन्न कर देता है। इसी प्रकार 'जिह्वा और घ्राणेंद्रिय में रस एवं गंध के अतिरिक्त अन्य प्रभाव भी होते हैं, कठोर शब्द कान के पर्दो पर
आघात करता है। चक्षु तथा मन पर इस प्रकार के प्रभाव नहीं होते । आग को देखने पर भी आँखों में जलन नहीं होती। इसी प्रकार मन पर भी उसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। अतः ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। न्यायदर्शन का कथन है कि मन का वस्तु के साथ संपर्क नहीं होता । वह इंद्रिय और आत्मा के बीच की कडी है। किंतु चक्षु-इंद्रिय अप्राप्यकारी नहीं है । आँखों की रश्मियाँ बाहर निकलकर वस्तु को ग्रहण करती हैं। वेदांत रश्मियों के साथ अंतःकरण का भी बाहर निकलना स्वीकार करता है। वर्तमान विज्ञान का कथन है कि रश्मियां बाहर नहीं निकलतीं, किंतु वस्तु का आँख की पुतली में प्रतिबिंब पडता है। दृष्टिनाडी उस प्रतिबिंब को मस्तिष्क तक ले जाती है और ज्ञान या अनुभूति का विषय बना देती है। यह मान्यता भी चक्षु के अप्राप्यकारी होने का समर्थन करती है । जहाँ तक मन का प्रश्न है इसके द्वारा तीन प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं । प्रथम प्रकार उन अनुभूतियों का है जिनका प्रारंभ इंद्रिय-ज्ञान से होता है किंतु मन अपनी ओर से उस ज्ञान में किसी नए तत्त्व का संनिवेश करता है जैसे-अनुमान । वहाँ धूम का इंद्रियप्रत्यक्ष होता है और उस आधार पर-मन अग्नि की प्रतीति को जोड देता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान में अक्षरों का प्रत्यक्ष होता है और मन अर्थो को जोड देता है। ऐसे स्थलों में मानसिक ज्ञान को सभी ने परोक्ष माना है। द्वितीय प्रकार उन अनुभूतियों का है जहाँ मन इंद्रिय द्वारा अनुभूत पदार्थ में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं व्यवसायात्मकता लाने का प्रयत्न करता है । जैनदर्शन में इसी क्रम का विभाजन अवग्रह, ईहा आदि के रूप में किया गया है। न्यायदर्शन इसे निर्विकल्पक एवं सविकल्पक प्रत्यक्ष के रूप में उपस्थित करता है । बौद्ध-दर्शन प्रथम निर्विक