Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 96
________________ प्रत्यक्ष आत्मा की अनुभूति होने के कारण प्रांत नहीं होता। इसके विपरीत अनुमान आदि परोक्ष ज्ञान मध्यवर्ती हेतु आदि के मिथ्या होने पर मिथ्या भी हो सकते हैं। प्रस्तुत ज्ञान भी इंद्रिय और मन का व्यवधान बा जाने के कारण मिथ्या हो सकता है। पीलिया रोग काले को सफेद वस्तु भी पीली दिखाई देती है । इसी प्रकार मन में राम, द्वेष आदि के कारण बाह्य वस्तुएँ विपरीत दिखाई देने लगती हैं। मिथ्यात्व की संभावना होने के कारण यह ज्ञान वास्तव में परोक्ष ही है। " यहाँ एक बात विचारणीय है। धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष की परिभाषा में अभ्रांत शब्द लगाया है। उसकी मान्यता है कि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक या कल्पनारहित होता है। भ्रांति की संभावना केवल कल्पना में होती है, निर्विकल्पक प्रतीति में नहीं होती । अतः प्रत्यक्ष सदा अभ्रांत होता है । गौतम ने भी अपनी प्रत्यक्ष की माख्या में इसी का अनुसरण किया है। उसने प्रत्यक्ष को अब्यपदेश्य, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक कहा है। प्रत्यक्ष मे जो ज्ञान होता है उसे शब्दों द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता। साथ ही वह निर्दोष होता है। यशोविजय ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में दोष की संभावना बताकर इसी तथ्य का समर्थन किया है। पृष्ठ ४, पं. १० तद्धीन्द्रिया-जैन दर्शन में आत्मा चेतन और अपौद्गलिक है। इसके विपरीत मन और इंद्रियाँ जड तथा पौद्गलिक हैं। जो ज्ञान आत्मा से होता है वह 'प्रत्यक्ष है और जो अन्य कारणों की अपेक्षा. रखता है वह परोक्ष । इसी आधार पर मति और श्रुत को 'परोक्ष' कहा गया है। मीमांसादर्शन में इन दोनों की व्याख्या दूसरे प्रकार से की गई है। वहाँ प्रत्यक्ष का अर्थ है-वह ज्ञान जो स्वतः प्रमाण है। जिसे प्रामाण्य के लिए किसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं है, जैसे वेद । इसके विपरीत जिस ज्ञान का प्रामाण्य किसी अन्य आधार पर अवलंबित है, उस परोक्ष कहा जायगा, जैसे स्मृतियाँ तथा उत्तरवती साहित्य । उनका प्रामाण्य वेद के प्रामाण्य पर निर्भर है। मीमांसादर्शन में स्मृतियों के लिए अनुमान शब्द का प्रयोग भी किया गया है । यशोविजय ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष की व्याख्या में उपर्युक्त दृष्टि को सामने रखा है। उनका कथन है कि जिस ज्ञान में संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय की संभावना है, वह स्वतः प्रमाण नहीं होता, उसे परोक्ष कहा जायगा। मति और श्रुत इसी प्रकार के ज्ञान हैं। इसके विपरीत जो ज्ञान केवल आत्मजन्य होते हैं, उनमें संशय आदि की संभावना नहीं है। वे स्वतः प्रमाण हैं । उन्हें प्रत्यक्ष कहा जायगा। इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष में परस्पर भेद का निरूपण दो आधारों पर किया गया। प्रथम आधार ज्ञप्ति अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति से संबंध रखता है। प्रत्यक्ष केवल आत्मा से उत्पन्न होता है और परोक्ष इंद्रिय एवं मन की सहायता से । द्वितीय आधार प्रमिति अर्थात प्रामाण्य है। आत्मा से होने वाला ज्ञान स्वतः प्रमाण होता है। उसमें अप्रामाण्य की संभावना नहीं रहती । इसके विपरीत इंद्रिय एवं मन से होम बाला ज्ञान इस संभावना से मुक्त नहीं होता। उसका प्रामाण्य अन्य तथ्यों पर निर्भर है। पृष्ठ ५, पं. ७ नन्वेवमवग्रह-मति और श्रुत के परस्पर भेद को लेकर 'विशेषावश्यक-भाष्य' में विस्तृत चर्चा है । वहाँ यह मत भी आया है कि प्रत्येक ज्ञान शब्द का संपर्क होने पर 'श्रुत-ज्ञान' हो जाता है। सर्वप्रथम इंद्रियाँ वस्तु को ग्रहण करती हैं जिसे 'अवग्रह' कहा जाता है। उसके पश्चात् मन अपने प्राचीन संस्कारों के अनुसार उनका वर्गीकरण करना चाहता है, जिसे 'ईहा' कहा जाता है। वर्गीकरण की इच्छा होते ही ज्ञान के साथ शब्द जुड़ जाता है। उसके बिना वर्गीकरण नहीं हो सकता । इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर यह शंका उठाई गई कि ईहा आदि को श्रुत कहा जाय या मति ? यशोविजय का कथन है कि उत्तर अवस्था में शब्द का सम्मिश्रण होने पर भी उस ज्ञान का प्रारंभ शब्द से नहीं होता। अतः उसे मति ही कहा जायगा। इसके विपरीत जिस ज्ञान का प्रारंभ ही शास्त्र या दूसरे के कथन से हो उसे श्रुत कहा जायगा।

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