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पश्चात् निर्विकल्पक ज्ञान को मानता है, किंतु उसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से करता है। वहाँ वस्तु और उसका विशेष धर्म, घट और घटत्व दोनों प्रतीत तो होते हैं, किंतु उनमें परस्पर संबंध का भान नहीं होता। यह भान तृतीयक्षण में होता है इसके विपरीत जनदर्शन का कथन है कि प्रथम क्षण में केवल वस्तु का भान होता है और वैशिष्टय का उत्तरवर्ती क्षणों में।
पृष्ठ १०, पं. ६ कथं तहि-नंदिसूत्र में अवग्रह की व्याख्या में आया है-'से जहा नामए केइ पुरिसे बव्वत्तं सई सुणेज्जा तेणं सद्देत्ति उग्गहिए, न उण जाणइ के वेस सदाइ ति' अर्थात् जैसे किसी पुरुष ने अव्यक्त शब्द सुना । उसे यह भान नहीं होता कि वह किसका शब्द है ? यही अवग्रह है। यहाँ प्रश्न होता हैं कि शब्द का भान होने पर उसे अवग्रह कैसे कहा जायगा? क्योंकि अवग्रह में नाम, जाति आदि का वर्गीकरण नहीं होता। उत्तर में आचार्य का कथन है कि जिस प्रकार चा से होने वाले अवग्रह में आकार का भान होने पर भी यह पता नहीं चलता कि वह किसका है। इसी प्रकार श्रोत्र से होने वाले अवग्रह में केवल शब्द का भान होता है। वह किसका है या क्या कह रहा है, इत्यादि का भान नहीं होता।
पृष्ठ १३, पं.६ नन्ववग्रहेऽपि क्षिप्रेतरादि........ भेद-प्रभेद द्वारा वस्तु को समझना भारत की प्राचीन परिपाटी है। प्रत्येक परंपरा ने इस शैली को अपनाया है। बहत बार ऐसा भी हआ है कि भेद-प्रभेदों को लेकर परस्पर प्रतिस्पर्धा चल पडी और जिसनं जितने अधिक भेद किए वह उतना ही सूक्ष्म विवेचक समझा गया । इसी प्रतिस्पर्धा के कारण जैनशास्त्रों में मतिज्ञान के भेदों की संख्या १३६ तक पहुँच गई। सर्वप्रथम चार भेद किए गए-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अवग्रह के पुनः दो भेद हो गए-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । व्यंजनावग्रह मन और चक्षु के द्वारा नहीं होता । शेष चार इंद्रियों के द्वारा होने के कारण उसके चार और अर्थावग्रह आदि चारों के छः छः भेद हो गए। इन अट्ठाईस में प्रत्येक के पुनः १२-१२ भेद कर दिए गए यहाँ यह प्रश्न होता है कि अवग्रह केवल एक क्षण रहता है । उसमें बारह अवस्थाएँ संभव नहीं हैं । व्यंजनावग्रह में तो अर्थ का भान ही नहीं होता, ऐसी स्थिति में यह भेद कैसे किए जा सकते हैं। यशोविजा की सूक्ष्मद्दष्टि इस असामंजस्य पर पहुँची और उन्होंने भी इसका अनुभव किया। दूसरी ओर परंपरा के प्रति श्रद्धा बनी हुई थी। अतः उन्होंने उत्तरकालीन विकास के आधार पर अवग्रह में भी इन भेदों का समर्थन किया। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि वास्तव में वे अपाय के भेद हैं, किंतु कारण में कार्य का उपचार करके उन्हें अवग्रह के भेद भी मान लिया गया।
पृष्ठ १३, पं. ९ (अवग्रहो द्विविधः)-उपर्युक्त समस्या का एक और समाधान प्रस्तुत किया गया। उन्होंने अवग्रह के दो भेद कर दिए नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अवग्रह ज्ञान की प्रथम अवस्था है। वहाँ अन्य भेदों का संभव नहीं है । किंतु व्यावहारिक अवग्रह सापेक्ष है। प्रत्येक ज्ञान में हम उत्तरोत्तर सूक्ष्मता की ओर जाते हैं और प्रत्येक नवीन तत्त्व सर्वप्रथम अवग्रह के रूप में उपस्थित होता है। उदाहरण के रूप में हमने किसी दूरवर्ती वस्तु को देखा । द्वितीय क्षण में संदेह हुआ कि वह मनुष्य है या कोई अन्य वस्तु ? तृतीय क्षण में संभावना होने लगी कि मनुष्य होना चाहिए और चौये क्षण में निश्चय हो गया कि वह मनुष्य ही है। संशय के पूर्ववर्ती क्षण को अवग्रह कहा जायगा। और उत्तरवर्ती दो क्षणों को क्रमश: ईहा बोर अवाय । मनुष्यत्व का निश्चय होने पर पुनः संदेह होता है कि वह राम है या कोई अन्य ? इस संदेह से पहले राम का अवग्रह होता है और उसके पश्चात् ईहा तथा अवाय । इसी प्रकार ज्यों-ज्यों जिज्ञासा बढती है और हम सामान्य से विशेष की ओर जाते हैं, अवग्रह ईडा आदि चारों अवस्याएं नया रूप लेती रहती हैं । इन उत्तरवर्ती अवस्थाओं को लेकर अवग्रह के भी १२ भेद किए जा सकते हैं।