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लिया गया, तो मतिज्ञान के तीन ही भेद रह जाएंगे। अत: अवाय और धारणा को क्रमशः निषेध और विधिरूप मानना अधिक उपयुक्त है। इसके उत्तर में यशोविजय का कथन है कि यदि ज्ञान अवाय तक ही सीमित रहे और वासना या संस्कार के रूप में परिणत न हो तो वह स्मृति का उत्पादक नहीं हो सकता। मतः स्मृति को उत्पन्न करने के लिए ज्ञान की एक ऐसी अवस्था माननी होगी जो दृढीभूत होकर संस्कार छोड जाती है। यही धारणा है। जहाँ तक ज्ञेय का प्रश्न है, अवाय उसे पूरी तरह जान लेता है । धारणा में वही दृढ होकर संस्कार का रूप ले लेता है।
पृष्ठ २०, पं. ५ सम्यक-सम्यक्-श्रुत और मिथ्या-श्रुत का विभाजन दो आधारों पर किया जाता है। प्रथम आधार व्यक्तिनिष्ठ है और द्वितीय वस्तुनिष्ठ । आगमिक परंपरा व्यक्तिनिष्ठ आधार को अधिक महत्त्व देती है। उसका कथन है कि सम्यक-दृष्टि का समस्त ज्ञान सम्यक् होता है और मिथ्या-दृष्टि का मिथ्या । ऐसी स्थिति में आचारांग आदि जैनशास्त्र भी मिथ्या-दृष्टि द्वारा गृहीत होने पर मिथ्या हैं और सम्यक-दृष्टि द्वारा गृहीत होने पर सम्यक् । वस्तुनिष्ठ आधार में आचारांग आदि जैनशास्त्रों को सम्यक्-श्रुत कहा गया और महाभारत, रामायण आदि जैनेतर ग्रंथों को मिथ्याश्रुत । प्रथम व्याख्या उपयोगिता को लक्ष्य में रखती है । सम्यक-दृष्टि अपने ज्ञान का उपयोग आत्मविकास में करता है। अतः उसका प्रत्येक ज्ञान सम्यक् है । दूसरी ओर मिथ्या-दृष्टि उसका उपयोग आत्मपतन में करता है। अतः उसका प्रत्येक ज्ञान मिथ्या है। पाश्चात्य दर्शनों में इस दृष्टिकोण को उपयोगितावाद Pragmatism कहा गया है। जिसका विकास अमरीका में हुआ है । दूसरे शब्दों में इसे फलमूलक व्याख्या कहा जायगा। तर्कयुग में व्यक्तिनिष्ठ व्याख्या का स्थान वस्तुनिष्ठ व्याख्या ने ले लिया। उस समय यह कहा गया कि जो ज्ञान घट को घट कहता है, वह सम्यक है। ज्ञाता सम्यक् दृष्टि हो या मिथ्या दृष्टि इससे ज्ञानके सम्यक्त्व में कोई बाधा नहीं पड़ती। इस आधार पर -सत्य के प्रतिपादक होने के कारण जैनगास्त्रों को सम्यक्श्रुत कहा गया और असत्य के प्रतिपादक होने के कारण जैनेतर ग्रंथों को मिथ्याश्रुत ।
पृष्ठ २४, पं. ४ योगजधर्मानुगहीत-न्यायदर्शन प्रत्येक ज्ञान में आत्मा और मन के संयोग को आवश्यक मानता है। मुक्त-अवस्था में यह संयोग नहीं रहता, अतः ज्ञान भी नहीं होता ।योगज अथवा अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के लिए भी यह संयोग आवश्यक है। किंतु जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है । प्रत्येक आत्मा अपने आप में सर्वज्ञ और सर्वदशी है। ज्ञान के लिए उसे मन, इंद्रिय आदि किसी बाह्य कारण की अपेक्षा नहीं होती।
वेदांत में अविद्या के दो रूप माने गए हैं-मूलाविद्या और तूलाविद्या । मूलाविद्या का नाश आत्मसाक्षाकार होने पर ही होता है। उसकी निवृत्ति आंशिक रूप से नहीं होती। घट-पट आदि बाह्य वस्तुओं के ज्ञान में तूलाविद्या आंशिक रूप से हट जाती है और मन का व्यापार बंद होने पर पुनः आवरण डाल देती है। यशोविजय ने भी ज्ञानावरण की व्याख्या इसी प्रकार की है। केवलज्ञानावरण मूलाविद्या के समान है, जो एक ही बार हटता है। प्रथम चार ज्ञानों के आवरण तूलाविद्या के समान हैं, जो आंशिक रूप से हटते हैं और पुनः आत्मा को आवृत कर लेते हैं। इसीलिए जैनदर्शन में माना गया है कि प्रथप चार ज्ञान सतत नहीं रहते 'जब मन में जानने की इच्छा होती है तभी आवरण रहता है और उनका आविर्भाव होता है। इसके विपरीत केवल ज्ञान एक बार उत्पन्न होने पर नष्ट नहीं होता और सतत बना रहता है। आंशिक निवृत्ति के कारण प्रथम चार ज्ञानों में तरतमता रहती है। किंतु केवल ज्ञान में नहीं रहती। वह सर्वत्र एक सा होता है।
पृष्ठ २५, पं. २ तच्च स्मरण-जैनदर्शन में परोक्ष के पाँच भेद किए गए हैं-स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क,