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या क्षत्रिय, जब प्राणिशास्त्र की तो मनुष्य, जब दार्शनिक तत्त्वों की तो आत्मा या चेतन । विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर किए जाने वाले इस व्यवहार को 'नय' कहा जाता है । प्रमाण का मुख्य लक्ष्यवस्तु का ज्ञान होता है और नय का मुख्य लक्ष्य व्यवहार ।
पृष्ठ ६३, पं. ६ तथा विशेषग्राहिणः - तत्त्वार्थसूत्र में आया है 'अर्पितानपितसिद्धेः' अर्थात् वस्तु अपित और अनर्पित के रूप में सिद्ध होती है। अर्पित का अर्थ है-विशेष । जहाँ वस्तु को कोई आकार दे दिया जाता है। अनर्पित का अर्थ है-सामान्य, जहाँ यह आकार नहीं दिया जाता ।
पृष्ठ ६४, पं. ८ स्थितपक्षत्वाद्-मय के स्वरूप में बताया गया है कि वह किसी एक पक्ष को लेकर चलता है । सैद्धान्तिक चर्चा के समान साधना के क्षेत्र में भी उसका वही दृष्टिकोण है। जैनदर्शन मोक्ष के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों को कारण मानता है। जैनेतर दर्शनों में भक्तिवादी परंपराएँ दर्शन या श्रद्धा पर बल देती हैं । वेदांत, सांख्य, न्याय आदि दार्शनिक परंपराएँ ज्ञान पर और मीमांसक क्रिया पर । जैनसाधना में भी विभिन्न नय विभिन्न साधनों को पृथक-पृथक रूप में लेकर चलते हैं।
इन्द्रचन्द्र शास्त्री