Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 58
________________ प्रमाणपरिच्छेदः (त्र) तत्परत्वेनैतदापादनस्य वस्तुनिश्चायकत्वाभावात्, प्रसंगविपर्ययरूपस्य मौलहेतोरेव तनिश्चायकत्वात्, अनेकवृत्तित्वव्यापकानेकत्वनिवृत्त्यैव तनिवृत्तेः मौलहेतुपरिकरत्वेन प्रसंगोपन्यासस्यापि न्याय्यत्वात् । बुद्धिरचेतनेत्यादौ च प्रसंगविपर्ययहेतो ाप्तिसिद्धिनिबन्धनस्य विरुद्धधर्माध्यासस्य विपक्षबाधकप्रमाणस्यानुपस्थापनात् प्रसंगस्याप्यन्याय्यत्वमिति वदन्ति । - हेतुः साध्योपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विधा प्रयोक्तव्यः, यथा पर्वतो वहि नमान्, सत्येव वह नौ धूमोपपत्तेः असत्यनुपपत्तेर्वा । अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ द्वितीयप्रयोगस्यकत्रानुपयोगः। पक्षहेतुवचनलक्षणमवयवद्वयमेव च परप्रतिपत्त्यंगं न दृष्टान्तादिवचनम्, पक्षहेत____समाधान-ठीक है, यह आपादन वस्तुका निश्चायक नहीं है । इसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि एक धर्मको स्वीकार करने पर दूसरा धर्म भी अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। अर्थात् यहाँ सिर्फ यही प्रकट किया गया है कि यदि सामान्यको सर्वथा एक स्वीकार करते हो तो उसका एक साथ अनेकोंमें रहना स्वीकार नहीं कर सकते और यदि अनेकोंमें रहना स्वीकार करते हो तो उसे सर्वथा एक नहीं मान सकते । असलमें तो प्रसंग विपर्ययरूप मौलिक हेतु ही वस्तुका निश्चायक होता है । मौलिक हेतु यह है-सामान्य अनेकरूप है, क्योंकि अनेकोंमें सम्बद्ध है, जो अनेकोंमें सम्बद्ध होता है, वह अनेक होता है। अनेकत्व एकत्वसे विरुद्ध है और अनेकवृत्तित्व की उसके साथ व्याप्ति है । जब सामान्यमें अनेकवत्तित्व स्वीकार किया है तो अनेकत्व भी स्वीकार करना चाहिए । इस मौल हेतुके आधार पर ही पूर्वोक्त प्रसंग दिया गया है । इस प्रकार अनेकवृत्तित्व के व्यापक अनेकत्व के अभावसे अनेकवृत्तित्वका भी अभाव हो जाता है। अतएव यह प्रसंगोपन्यास मूल हेतुका परिकर होनेसे न्यायोचित ही है। मगर 'बुद्धि अचेतन है, क्योंकि वह उत्पत्तिमान् है यहाँ प्रसंगका उपन्यास करना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि उत्पत्तिमत्त्व और अचेतनत्वकी व्याप्तिकी सिद्धि तब होती यदि वह चैतन्य और उत्पत्तिमत्त्वका विरोध सिद्ध करके विपक्ष में बाधक प्रमाण उपस्थित कर सकता । किन्तु वह वैसा करता नहीं, अतएव प्रसंगापादन करना उसके लिए उचित नहीं। हेतुका प्रयोग दो प्रकारसे करना चाहिए-साध्योपपत्तिके रूपसे तथा अन्यथानुपपत्ति रूपसे । साध्यके होनेपर ही हेतुका होना साध्योपपत्ति है, जैसे-'पर्वत बहिनमान है, क्योंकि वह्निके होनेपर ही धूम हो सकता है' और साध्यके अभावमें साधनका अभाव होना अन्यथानुपपत्ति है । जैसे-क्योंकि वहिनके अभावमें धूम भी नहीं हो सकता।' इन दोनों प्रकारके प्रयोगोंमें से किसी भी एकके प्रयोगसे साध्यका ज्ञान हो जानेपर एक ही जगह दूसरे प्रयोगकी कोई उपयोगिता नहीं है। पक्षप्रयोग और हेतुप्रयोगरूप दो अवयवोंसे ही दूसरेको प्रतिपत्ति (बोध) हो जाती है

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