Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 79
________________ जैन तर्क भाषा भिसन्धिर्नैगमाभासः, यथा नैयायिकवैशेषिकदर्शनम् । सत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान्निराचक्षाणः संग्रहाभासः यथाऽखिलान्यद्वैतवादिदर्शनानि सांख्यदर्शनं च । अपारमार्थिकद्रव्य पर्याय विभागाभिप्रायो व्यवहाराभासः, यथा चार्वाकदर्शनम्, चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्नं जीवद्रव्यपर्यायादिप्रविभागं कल्पनारोपितत्वेनापह्नुतेऽविचारितरमणीयं भूतचतुष्टयप्रविभागमात्रं तु स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थयत इति । वर्तमानपर्यायाभ्युपगन्ता सर्वथा द्रव्यापलापी ऋजुसूत्राभासः, यथा ताथागतं मतम् । कालादिभेदेनार्थभेदमेवाभ्युपगच्छन् शब्दाभासः, यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयः शब्दा भिन्नमेवार्थमभिदधति, भिन्नकालशब्दत्वात्ताह सिद्धान्यशब्दवदिति । पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणः समभिरूढाभासः, यथा इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा भिन्नाभिधेया एव, भिन्नशब्दत्वात्, करिकुरंगशब्दवदिति । क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपन्नेवंभूताभासः, यथा विशिष्ट ६६ नयाभास कहलाता है । धर्मी और धर्म अर्थात् द्रव्य और गुणमें, अनेक गुणों में अथवा द्रव्यों में एकान्त भेद स्वीकार करनेवाला नैगमाभास है । जैसे नैयायिक और वैशेषिक दर्शन । एक मात्र सत्ताको अंगीकार करनेवाला और समस्त विशेषोंका निषेध करनेवाला संग्रह नयाभ स है, जैसे समस्त अद्वैतवादी दर्शन और सांख्यदर्शन । द्रव्य और पर्यायका अवास्तविक भेद स्वीकार करनेवाला नय व्यवहाराभास कहलाता है, जैसे चार्वाकदर्शन प्रमाणसे सिद्ध जीवद्रव्य और पर्याय आदिके भेदको काल्पनिक कहकर अस्वीकार करता है और स्थूल लोकव्यवहारका अनुयायी होने से भूतचतुष्टयका विभाग मात्र स्वीकार करता है । केवल वर्तमान पर्यायको स्वीकार करनेवाला और त्रिकालवर्ती द्रव्यका सर्वथा निषेध करनेवाला ऋजुसूत्रनयाभास है, जैसे बौद्ध मत । कालादिके भेदसे अर्थभेदको ही स्वीकार करनेवाला और अभेदका निषेध करनेवाला शब्दनयाभास है, जैसे सुमेरु था, है और होगा; इत्यादि शब्द भिन्न अर्थके ही प्रतिपादक हैं, क्योंकि वे भिन्न कालवाची शब्द हैं, जो भिन्न कालवाची शब्द होते हैं, वे भिन्नार्थक ही होते हैं; जैसे अगच्छत्, पठति, भविष्यति ( गया, पढ़ता है, होगा ) आदि शब्द । पर्याय वाचक शब्दों के अर्थमें भिन्नता ही माननेवाला और अभिन्नताका निषेध करनेवाला समभिरूढ नयाभास कहलाता है । यथा - इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि शब्दों का अर्थ भिन्न-भिन्न है क्योंकि वे शब्द भिन्न-भिन्न हैं; जैसे करी, कुरंग आदि शब्द । जिस शब्दसे जिस क्रियाका बोध होता है. वह क्रिया जब किसी वस्तुमें न पाई जाय, तब उस वस्तु के लिए उस शब्दका प्रयोग नहीं ही करना चाहिए, इस प्रकार माननेवाला और अन्य नयका निषेध करनेवाला अभिप्राय एवंभूत नयाभास है । जैसे - विशिष्ट चेष्टाने शून्य

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