Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 89
________________ जैन तर्क भाषा तथापि गुणपर्यायवियुक्तत्वेन बुद्धया कल्पितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो द्रव्यजीवः, शून्योऽयं भंग इति यावत्, सतां गुणपर्यायाणां बुद्धयापनयस्य कर्तुमशक्यत्वात् । न खलु ज्ञानायत्तार्थपरिणतिः, किन्तु अर्थो यथा यथा विपरिणमते तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्तीति । न चैवं नामादिचतुष्टयस्य व्यापिताभंगः, यतः प्रायः सर्वपदार्थेष्वन्येषु तत् सम्भवति । यद्यत्रकस्मिन्न सम्भवति नैतावता भवत्यव्यापितेति बृद्धाः । जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्यजीव इत्यप्याहुः । अपरे तु वदन्ति-अहमेव मनुष्यजीवो (द्रव्यजीवो)ऽभिधातव्यः उत्तरं देवजीवमप्रादुर्भूतमाश्रित्य अहं हि तस्योत्पत्सोर्देवजीवस्य कारणं भवामि, यतश्चाहमेव तेन देवजीवभावेन भविष्यामि, अतोऽहमधुना द्रव्यजीव इति । एतत्कथितं तैर्भवति-पूर्वः पूर्वो जीवः परस्य परस्योत्पित्सोः कारणमिति । अस्मिश्च पक्षे सिद्ध एव भावजीवो भवति, नान्य इति-एतदपि नानवद्यमिति तत्त्वार्थटीकाकृतः। ___ इदं पुनरिहावधेयं-इत्थं संसारिजीवे द्रव्यत्वेऽपि भावत्वाविरोधः, एकवस्तुगतानां नामादीनां भावाविनाभूतत्वप्रतिपादनात् । तदाह भाष्यकार:मिक भाव है । तथापि बुद्धिसे यह कल्पना करलें कि गुण और पर्यायसे रहित अनादि पारिणामिक भाव (जीवत्व) से युक्त द्रव्य जीव कहलाता है; भाव यह भंग शून्य ही होगा, क्योंकि ऐसा कोई जीव हो नहीं सकता। विद्यमान गुणों और पर्यायोंको कल्पना मात्रसे हटाया तो नहीं जा सकता ! पदार्थका परिणमन ज्ञानके अधीन नहीं है; वरन पदार्थका जैसाजैसा परिणमन होता है वंसा ही. वैसा ज्ञान उत्पन्न होता है। जीवमें द्रव्य निक्षेप घटित न होनेसे नामादि चारों निक्षेपोंकी व्यापकता भंग हो जाती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि प्रायः अन्य सब पदार्थोंमें वे व्याप्त हैं । प्राचीन आचायाँका कथन है कि कहीं एकाध पदार्थमें घटित न होने मात्रसे उनकी व्यापकता नहीं मिट सकती । उनका यह भी कहना है कि जो 'जीव' शब्दके अर्थको जानता है किन्तु उसमें उपयोग नहीं लगाये है वह द्रव्यजीव है। किन्हींका कहना है-'जो अभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसे उत्तरकालीन देवजीवकी अपेक्षा मैं मनुष्यजीव ही द्रव्यजीव हूँ, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि उत्पन्न होनेवाले उस देवजीवका मैं कारण हूँ। इस कारण इस समय में द्रव्यजीव हूँ' । इनके कथनका अभिप्राय यह निकला कि पहले-पहले वाला जीव अगले-अगले उत्पन्न होने वाले जीवका कारण है। इस पक्षमें केवल सिद्ध जोव ही भावजीव हो सकेंगे। उनके अतिरिक्त कोई भावजीव न रहेगा-सभी द्रव्यजीव ठहरेंगे । अतएव तत्त्वार्थके टीकाकारका कथन है कि यह मत ठीक नहीं है । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है-इस प्रकार सभी संसारी जीव द्रव्यजीव हों तो भी उनमें भाव जीवत्वका विरोध नहीं होगा, क्योंकि एक वस्तुगत नाम आदि भावके अविनाभावी होते हैं । भाष्यकार कहते हैं

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