Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 88
________________ निःक्षेपपरिच्छेदः ७५ संग्रहब्यवहारयोः स्थापनानभ्युपगमोपपत्तावपि समुदितयोः संपूर्णनैगमरूपत्वात्तदभ्युपगमस्य दुनिवारत्वम्, अविभागस्थानैगमात्प्रत्येकं तदेककभागग्रहणात् । किञ्च, संग्रहव्यवहारयोर्नेगमान्तर्भावात्स्थापनाभ्युपगमलक्षणं तन्मतमपि तत्रान्तर्भूतमेव, उभयधर्मलक्षणस्य विषयस्य प्रत्येकमप्रवेशेऽपि स्थापनालक्षणस्यैकधर्मस्य प्रवेशस्य सूपपादत्वात्,स्थापनासामान्यतद्विशेषाभ्युपगममात्रेणैव संग्रहव्यवहारयोर्भेदोपपत्तेरिति यथागमं भावनीयम् । एतैश्च नामादिनिक्षेपैर्जीवादयः पदार्था निक्षेप्याः । (जीवविषये निःक्षेपाः ) . ___ तत्र यद्यपि यस्य जीवस्याजीवस्य वा जीव इति नाम क्रियते स नामजीवः, देवतादिप्रतिमा च स्थापनाजीवः, औपशमिकादिभावशाली च भावजीव इति जीवविषयं निक्षेपत्रयं सम्भवति, न तु द्रव्यनिक्षेपः । अयं हि तदा सम्भवेत्, यद्यनीवः सन्नायत्यां जीवोऽभविष्यत्, यथाऽदेवः सन्नायत्यां देवो भविष्यत् (न्) द्रव्यदेव इति। न चैतदिष्टं सिद्धान्ते, यतो जीवत्वमनादिनिधनः पारिणामिको भाव इष्यत इति । भिन्न नहीं है । यदि तीसरा पक्ष (सम्पूर्ण नैगमनय) स्वीकार किया जाय तो भी स्थापनाको स्वीकार करना अनिवार्य होगा, क्योंकि जब निरपेक्ष संग्रह और व्यवहार स्थापनाको स्वीकार नहीं करते हैं तो दोनों समुदित हो कर संपूर्ण नैगमरूप होकर उसे स्वीकार करेंगे ही। निविभाग नैगमनयके एक-एक भागको ही संग्रह और व्यवहार ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त जब संग्रह और व्यवहारनय नैगमनयके अन्तर्गत हैं तो नगमका मत भी उनके अन्तर्गत समझना चाहिए अर्थात् जो मत नैगमका है वही संग्रह और व्यवहारका भी होना चाहिए । उभय धर्म रूप विषय (सामान्य-विशेष) किसी एक में भले ही अन्तर्गत नहीं हो सकता, फिर भी स्थापना रूप एक धर्मका प्रवेश तो हो ही सकता है। स्थापनाके दो भेद-स्थापनासामान्य और स्थापना-विशेष मान लेनेसे ही संग्रह और व्यवहारका भेद संगत हो जायगा, इत्यादि विचार आगमके अनुसार करना चाहिए । इन नामादि चार निक्षेपोंसे जीव-आदि ‘पदार्थोंका न्यास करना चाहिए । (जीवके विषयमें निक्षेप ) किसी जीवका या अजीवका 'जीव' ऐसा नाम रख दिया जाता है, वह नामजीव कहलाता है। देवता आदिकी प्रतिमा स्थापनाजीव है। जो औपशमिक आदि भावोंसे युक्त है वह भावजीव है। इस प्रकार जीवके विषय में तीन ही निक्षेप घटित हो सकते हैं, द्रव्यनिक्षेप नहीं । यदि कोई वर्तमानमें अजीव हो और भविष्यमें जोव होनेवाला हो तो उसे द्रव्यजीव कहा जा सकता था; जैसे वर्तमानमें जो देव नहीं है किन्तु भविष्यमें होने वाला है, उसे द्रव्यदेव कहते हैं । मगर जीवके विषयमें ऐसा माना नहीं जा सकता। वर्तमानमें अजीव भविष्यमें जीव होगा, यह सिद्धान्तमें अभिमत नहीं है । जीवत्व अनादि-निधन और पारिणा

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