Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 85
________________ ७२ जैन तर्क भाषा न्तिकात्यन्तिकस्य भावस्याभ्यहितत्वमनुमन्यन्ते प्रवचनवृद्धाः । एतच्च भिन्नवस्तुगतनामाद्यपेक्षयोक्तम्। अभिन्नवस्तुगतानां तु नामादीनां भावाविनाभूतत्वादेव वस्तुत्वम्, सर्वस्य वस्तुनः स्वामिधानस्य नामरूपत्वात्, स्वाकारस्य स्थापनारूपत्वात्, कारणतायाश्च द्रव्यरूपत्वात्, कार्यापन्नस्य च स्वस्य भावरूपत्वात् । यदि च घटनाम घटधर्मो न भवेत्तदा ततस्तत्संप्रत्ययो न स्यात्, तस्य स्वापृथग्भूतसंबन्धनिमित्तकत्वादिति सर्व नामात्मकमेष्टव्यम् । साकारं च सर्व मति-शब्द-घटादीनामाकारवत्त्वात्, नोलाकारसंस्थानविशेषादीनामाकाराणामनुभवसिद्धत्वात् । द्रव्यात्मकं च सर्व उत्फणविफणकुण्डलिताकारसमन्वितसर्पवत् विकाररहितस्याविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामस्य द्रव्यस्यैव सर्वत्र सर्वदानुभवात् । भावात्मकं च सर्व परापरकार्यक्षणसन्तानात्मकस्यैव तस्यानुभवादिति चतुष्टयात्मकं जगदिति नामादिनयसमुदयवादः । प्रवचन-वृद्ध आचार्य ऐकान्तिक और आत्यन्तिक भावको अभ्यहित (सबसे बढ़कर) मानते हैं । ऊपर जो समाधान किया गया है, वह विभिन्न वस्तुगत नाम आदिकी अपेक्षासे है । एक ही वस्तुमें रहे हुए नामादि तो भावके अविनाभावी होनेके कारण ही वस्तुरूप हैं। क्योंकि प्रत्येक वस्तुका अपना-अपना अभिधान नाम है, अपना-अपना आकार-स्थापना है, (भावी पर्यायके प्रति) अपनी-अपनी कारणता द्रव्य है और वर्तमान पर्यायरूप वह स्वयं भाव है। घटका नाम घटका धर्म है । ऐसा न होता तो 'घट' शब्द सुननेसे घटकी प्रतीति न होती। नाम अपनेसे अभिन्न नामवान् पदार्थमें संबंधका कारण है अर्थात् जब श्रोता 'घट' नामको श्रवण करता है तो उसे पट आदिसे भिन्न और अपनेसे अभिन्न ‘घट' पदार्थका ही बोध होता है। अतएव सभी पदार्थोंको नामरूप मानना चाहिए । सभी पदार्थ साकार । (स्थापनारूप) हैं, क्योंकि मति, शब्द और घटादि सभीमें आकार होता है । नील आदि तथा संस्थानविशेष आदि आकार अनुभवसे सिद्ध हैं । । सभी पदार्थ द्रव्यात्मक हैं । उत्कण विफण और कुंडलित (गोलाकारयुक्त) आकारोंवाले सर्प के समान निर्विकार, केवल आविर्भाव-तिरोभाव परिणामवाले द्रव्यकी ही सर्वत्र और सर्वदा प्रतीति होती है । सर्प कभी फन फैला लेता है, कभी सिकोड़ लेता है, कभी गोलमोल हो जाता है, कभी लंबा फैल जाता है, मगर सभी अवस्थाओंमें सर्प द्रव्य तो वही का वही प्रतीत होता है। किसी पर्यायका आविर्भाव और किसीका तिरोभाव हो जाने पर भी द्रव्यमें किसी प्रकारका विकार नहीं होता । सभी पदार्थ इसी प्रकार द्रव्यरूप हैं। सब पदार्थ भावात्मक अर्थात् पर्यायरूप हैं। क्योंकि एकके बाद दूसरे और दूसरेके बाद तीसरे पर्यायकी परम्परा चलती हुई प्रतीत हो रही है । इस प्रकार सब पदार्थ परापर कार्य-. क्षणोंकी सन्तान रूप ही अनुभवमें आ रहे हैं। इस प्रकार जगत् अर्थात् जगत्के समस्त पदार्थ नामादि-चतुष्टयमय हैं। यह नामनय, स्थापनानय, द्रव्यनय और भावनयका समुदयवाद है ।।

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