Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ ७० जैन तर्क भाषा क्षांगत्वाभावात् । भक्त्याऽविधिनापि क्रियमाणा सा पारम्पर्येण मोक्षांगत्वापेक्षया द्रव्यतामश्नुते, भक्तिगुणेनाविधिदोषस्य निरनुबन्धीकृतत्वादित्याचार्याः । विवक्षितक्रियानुभूतिविशिष्टं स्वतत्त्वं यन्निक्षिप्यते स भावनिःक्षेपः, यथा इन्दनक्रियापरिणतो भावेन्द्र इति । ननु भावजितानां नामादीनां कः प्रतिविशेषस्त्रिष्वपि वृत्त्यविशेषात् ?, तथाहि- नाम तावन्नामवति पदार्थे स्थापनायां द्रव्ये चाविशेषेण वर्तते । भावार्थशन्यत्वं स्थापनारूपमपि त्रिष्वपि समानम्. त्रिष्वपि भावस्थाभावात् । द्रव्यमपि नामस्थापनाद्रव्येषु वर्तत एव, द्रव्यस्यैव नामस्थापनाकरणात्, द्रव्यस्य द्रव्ये सुतरां वृत्तश्चेति विरुद्धधर्माध्यासाभावान्नैषां भेदो युक्त इति चेत्, न; अमेन रूपेण विरुद्धधर्माध्यासाभावेऽपि रूपान्तरेण विरुद्धधर्माध्यासात्तभेदोपपत्तेः। तथाहि--नामद्रव्याभ्यां स्थापना तावदाकाराभिप्रायबुद्धिक्रियाफलदर्शनाद् भिद्यते, यथा हि स्थापनेन्द्र लोचनसहलाद्याकारः, स्थापनाकर्तुश्च सद्भतेन्द्राभिप्रायो, द्रष्टुश्च तदाकारदर्शनादिन्द्रशून्यकी क्रिया साक्षात् मोक्षका कारण नहीं होती। भक्तिके साथ अविधिसे की जानेवाली वह क्रिया परम्परासे मोक्षका कारण होनेसे द्रव्यक्रिया कहलाती है। आचार्योंका कथन है कि भक्तिगुण अविधि के दोष को अनुबन्धहीन बना देता है। विवक्षित क्रिया की अनुभूतिसे युक्त जो स्वतत्त्व निक्षिप्त किया जाता है वह भावनिक्षेप है, जैसे वर्तमानमें इन्दनक्रिया करनेवाला भावेन्द्र है । . शंका-भावको छोड़कर नाम स्थापना और द्रव्यमें क्या अन्तर है ? इन तीनोंमें से प्रत्येक में तीनों को सत्ता पाई जाती है। जैसे-नाम, नामवान पदार्थमें, स्थापनामें और द्रव्यम समान रूप से रहता है। भाव रूप अर्थसे रहित होना स्थापनाका लक्षण है और वह भी नाम, स्थापना तथा द्रव्यमें है, क्योंकि ये तीनों ही भावसे रहित हैं। और द्रव्य भी नाम, स्थ पना तथा द्रव्यमें विद्यमान है, क्योंकि द्रव्यका ही नाम होता है, द्रव्यको या द्रव्यमें ही स्थापना की जाती है और द्रव्यम द्रव्य तो स्वभावतः रहता ही है । इस प्रकार नाम, स्थापना और द्रव्यमें विरोधी धम नहीं पाये जाते, अतएव इनमें भेद मानना उचित नहीं है। समाधान- ऐसा मत कहो । जिस रूपमें ऊपर तीनोंमें अभिन्नता प्रशित की गई है, उस रूपसे भेद न होने पर भी अन्य प्रकारसे उनमें परस्पर विरोधी धर्म पाये जाते हैं और इस कारण उनमें भिन्नता है । वह भिन्नता इस प्रकार है आकार, अभिप्राय, बुद्धि, क्रिया और फलदर्शनसे स्थापनाका नाम और द्रव्यसे भेद है। जैसे-स्थापना-इन्द्रमें हजार लोचन आदि इन्द्र का आकार होता है। स्थापना करने वालेका वास्तविक इन्द्रका ही अभिप्राय होता है अर्थात् वह असली इन्द्र के विचारसे हो स्थापना करना है। द्रष्टाको वह आकार देखकर इन्द्रकी बुद्धि उत्पन्न होती है-दर्शक उसे इन्द्र ही समझता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110