Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 82
________________ निःक्षेपपरिच्छेदः तत्त्वतोऽर्थनिष्ठा उपचारतः शब्दनिष्ठा च । मेर्वादिनामापेक्षया यावद्दव्यभाविनी, देवदत्तादिनामापेक्षया चायावद्रव्यभाविनी, यथा वा पुस्तकपत्रचित्रादिलिखिता बस्त्वभिधानभूतेन्द्रादिवर्णावली। यत्तु वस्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण स्थाप्यते चित्रादौ तादृशाकारम्, अक्षादौ च निराकारम्, चित्राद्यपेक्षयेत्वरं नन्दीश्वरचैत्यप्रतिमाद्यपेक्षया च यावत्कथिकं स स्थापनानिःक्षेपः, यथा जिनप्रतिमा स्थापनाजिनः, यथा चेन्द्रप्रतिमा स्थापनेन्द्रः । भूतस्य भाविनो वा भावस्य कारणं यन्निक्षिप्यते स द्रव्यनिःक्षेपः, यथाऽनुभूतेन्द्रपर्यायोऽनुभविष्यमाणेन्द्रपर्यायो वा इन्द्रः, अनुभूतघृताधारत्वपर्यायेऽनुभविष्यमाणघृताधारत्वपर्याये च घृतघटव्यपदेशवत्तत्रेन्द्रशब्दव्यपदेशोपपत्तेः । क्वचिदप्राधान्येऽपि द्रव्यनिःक्षेपः प्रवर्तते, यथाऽङ्गारमर्दको द्रव्याचार्यः, आचार्यगुणरहितत्वात् अप्रधानाचार्य इत्यर्थः । क्वचिदनुपयोगेऽपि, यथाऽनाभोगनेहपरलोकाद्याशंसालक्षणेनाविधिना च भक्त्यापि क्रियमाणा जिनपूजादिक्रिया द्रव्यक्रियेव, अनुपयुक्तक्रियायाः साक्षान्मो नाम और नामवान् अर्थ की यह परिणति वस्तुतः अर्थनिष्ठ है और उपचारसे शब्दनिष्ठ है। मेरु आदि नामोंकी अपेक्षा यह परिणति यावद्-द्रव्य-भाविनी है अर्थात् जब तक वे द्रव्य हैं तब तक उनका यह नाम भी बना रहता है। मगर देव-दत्त आदि नामोंकी अपेक्षा यह अयावद्रव्यभाविनी है (क्योंकि वे नाम द्रव्यके विद्यमान रहने पर भी बदल सकते हैं।) पुस्तक पत्र और चित्र बादि में लिखित वस्तुकी अभिधान रूप इन्द्र ऐसी वर्णावली भी नाम कहलाती है। जो वस्तु उस मूलभूत अर्थसे रहित हो किन्तु उसीके अभिप्रायसे स्थापित ( आरोपित) की जाय वह स्थापनानिक्षेप है। वह चित्र आदिमें तादृशाकार होती है और अक्ष आदिमें निराकार होती है । वह चित्र आदिको अपेक्षा अल्पकालिक होती है और नन्दीश्वर द्वीपके चैत्योंकी (शाश्वत) प्रतिमाकी अपेक्षा यावत्कथिक (जब तक वह वस्तु है तबतकके लिए) होती है । जैसे जिनप्रतिमा 'स्थापनाजिन' और इन्द्रकी प्रतिमा स्थापनेन्द्र' है। __भूतभाव (पर्याय) अथवा भावी-भावका जो कारण निक्षिप्त किया जाता है, वह द्रव्यनिक्षेप कहलाता है। जिस घटमें, भूतकालमें घृत रक्खा गया था अथवा भविष्यमें रक्खा जायगा वह वर्तमानमें भी 'घृत-घट' कहलाता है। इसी प्रकार जो भूतकाल में इन्द्र-पर्यायका अनुभव कर चुका है अथवा जो भविष्यमें करेगा, वह वर्तमान में भी इन्द्र कहलाता है। यह द्रव्यनिक्षेप है । कहींकहीं अप्रधानतामें भी द्रव्यनिक्षेप प्रवृत्त होता है, जैसे अंगारों (कोयलों) को मर्दन करने वाला आचार्य 'द्रव्याचार्य' कहलाता है। यहाँ द्रव्याचार्यका अभिप्राय है-आचार्यके गुणोंसे रहित होने के कारण अप्रधान आचार्य। कहीं-कहीं उपयोग शून्यताको भी 'द्रव्य' कहा है । जैसे-उपयोग-रहित होकर अथवा ऐहिक या पारलौकिक आकांक्षारूप अविधिसे, भक्तिपूर्वक भी की जानेवाली जिनपूजा आदि क्रिया, द्रव्यक्रिया ही कहलाती है। क्योंकि उपयोग

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