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जैन तर्क भाषा
क्षणात् । अथवा एकनयमतार्थग्राही व्यवहारः, सर्वनयमतार्थग्राही च निश्चयः । न चैवं निश्चयस्य प्रमाणत्वेन नयत्वव्याघातः, सर्वनयमतस्यापि स्वार्थस्य तेन प्राधान्याभ्युपगमात् । तथा ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः । क्रियामात्रप्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः । तत्रर्जुसूत्रादयश्चत्वारो नयाश्चारित्रलक्षणायाः क्रियाया एव प्राधान्यमभ्युपगच्छन्ति, तस्या एव मोक्षं प्रत्यव्यव हितकारणत्वात् । नैगमसंग्रहव्यव - हारास्तु यद्यपि चारित्रश्रुतसम्यक्त्वानां त्रयाणामपि मोक्षकारणत्वमिच्छन्ति, तथापि व्यस्तानामेव, न तु समस्तानाम्, एतन्मते ज्ञानादित्रयादेव मोक्ष इत्यनियमात्, अन्यथा नयत्वहानिप्रसंगात्, समुदयवादस्य स्थितपक्षत्वादिति द्रष्टव्यम् ।
कः पुनरत्र बहुविषयो नयः को वाऽल्पविषयः ?, इति चेदुच्यते-- सन्मात्र गोचरात्संग्रहात्तावन्नैगमो बहुविषयो भावाभावभूमिकत्वात् । सद्विशेषप्रकाशकाद्वयवहारतः संग्रहः समस्तसत्समू होपदर्शकत्वाद्बहुविषयः । वर्तमान विषयावलम्बिन ऋजुसूत्रात्कालत्रितयवर्त्यर्थ जातावलम्बी व्यवहारो बहुविषयः । कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदेशकाच्छब्दात्तद्विपरीतवेदक ऋजुसूत्रो बहुविषयः । न केवलं कालादिभेदेनैवर्जुमूत्रादल्पा
अथवा एक नयके अभिमत अर्थको ग्रहण करनेवाला व्यवहार नय और सर्व नयों के अभिमत अर्थको स्वीकार करनेवाला निश्चयनय कहलाता है । ऐसा स्वीकार करने पर भी निश्चयनयको प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह अपने विषयको सर्वनयों के मतको प्रधान रूपमें स्वीकार करता है ।
तथा ज्ञानकी ही प्रधानता स्वीकार करनेवाला ज्ञाननय कहलाता है । ऋजुसूत्र आदि चार नय चारित्र रूप क्रिया को ही प्रधान मानते हैं, क्योंकि चारित्रक्रिया हो मोक्षका अव्यवहित कारण है । नैगम, संग्रह और व्यवहारनय यद्यपि चारित्र, श्रुतज्ञान और सम्यक्त्व तीनों को मोक्षका कारण मानते हैं, किन्तु पृथक्-पृथक् को ही कारण मानते हैं, समुदित तीनों को नहीं । इन नयों के अनुसार ऐसा कोई नियम नहीं कि सम्यग्ज्ञान आदि तीनोंसे ही मोक्ष हो । अगर ये नय तीनोंके समुदायसे मोक्ष स्वीकार करलें तो नय एकांगी दृष्टिकोण ही न रह जाएँ । समुदायवाद अर्थात् मिले हुए सम्यग्दर्शन -ज्ञान- चारित्रको मोक्षका कारण मानना सिद्धान्तपक्ष है । प्रश्न - उपर्युक्त सात नयोंमें कौन बहुविषयवाला और कौन अल्पविषयवाला है ?
उत्तर-सत्ता मात्रको विषय करनेवाले संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय बहुविषयक है, क्योंकि वह सत्ता और असत्ता- दोनोंको विषय करता है । किसी सत् विषय पदार्थको प्रकाशित करनेवाले व्यवहारनय की अपेक्षा संग्रहनय अधिक विषयवाला है, क्योंकि वह समस्त सत्पदा - थके समूहका उपदर्शक है । वर्त्तमानकालीन पदार्थको विषय करनेवाले ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा व्यवहारनय अधिक विषयवाला है, क्योंकि वह त्रिकालवर्त्ती पदार्थ समूहको ग्रहण करता है । काल आदिके भेदसे पदार्थको भिन्न माननेवाले शब्दनयकी अपेक्षा ऋजुसूत्र बहुत विषयवाला है,.